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________________ श्रीयतीन्द्रसूरि - अभिनन्दन ग्रन्थ पृ. २६४ में 'रूसउ० 'गाथाको अभयदेवसूरिके 'साहम्मिवच्छलकुलक' की बताई है, लेकिन उससे प्राचीन सं. ९१५ के धर्मोपदेशमाला - विवरणमें (सिंघी जैन ग्रं. २८, पृ. १२२) जयसिंहसूरिने उस प्राचीन आर्ष गाथाको उद्धृत की है। पू. ३१६-३१७. लेखकने पादलिप्तसूरिकी आकाश-गमनद्वारा अष्टापदादि तीर्थ यात्रा सूचित की है, लेकिन उसके चरितोंमें शत्रुंजय, गिरनार आदिकी यात्राका उल्लेख है, उसमें अष्टापदका नाम नहि मिलता । 'बप्यभट्ट' नाम छपा है, वहाँ 'बप्पभट्टि' नाम चाहीए । 'पृ. ३२२ में 'सिरिवाल कहा' को मागधी बताई है, वास्तविकमें वह प्राकृत है । पृ. ३३७ में गूजरात पर हेमचन्द्राचार्यकी पूरी असरका समय 'सं. १९१६ से १९३०' तक छपा है, वहाँ 'सं. १२१६ से १२३०' समझना चाहीए । परमार्हत महाराजा कुमारपालने जैनधर्मका स्वीकार किया, वहाँसे लेके उसका जीवन-काल वहाँ तक प्रसिद्ध है । - विशेष में यह निवेदन करते हमे अत्यन्त दुःख होता है कि ऐसा महत्त्वका चिरस्मरणीय ग्रन्थ जैसा विशुद्र छपना चाहीए, वैसा नहि छुपा । इसमें थोडीसी सामान्य स्खलनाएं - त्रुटियाँ होती तो हम उपेक्षा करते; लेकिन स्थूल दृष्टिसे अवलोकन करनेवाले सुझ संशोधककोभी इसमें aast भूलें दिखाई देती हैं, जिनका उद्धरण शुद्धि-पत्रक द्वारा करना मुश्किल है, और इसके लिए अधिक पत्र छपाकर अधिक व्यय करना भी अनुचित प्रतीत होता है। इसके लिए सम्पादक मण्डलको हम क्या उपालम्भ दे ? वे तो मुद्रणालयसे बहोत दूर रहे होंगे लेकिन वे इस प्रकार के ज्ञाता, सुज्ञ संशोधककी योजनामें सफल नहि हुए ऐसा मालूम होता है । जिसको शुद्धि, अशुद्धिका अच्छा परिज्ञान हो, जो व्याकरणादिका, संस्कृत आदि भाषाका • व्युत्पन्न हो, और ग्रन्थस्थ विषयोंका भी ज्ञाता हो, साथमें प्रूफ-संशोधनादिकार्य जिसने किये हो, उस विषयका अनुभवी हो और जो सावधानतासे विचार-विमर्श कर संशोधन करनेवाला हो, लेकिन वैसी व्यक्तिकी योजना नहि हो सकी- इसका यह परिणाम है कि यह ग्रन्थ सैकडों भूलका भोग बन गया है। इससे लेखोंका वास्तविक भाव जो खुलना चाहीए, वह खुलता नहि है, उनका प्रकाश-तेज न्यून हो जाता है, लेखकों का महत्त्व घट जाता है, ग्रन्थके गौरवको हानि पहुँचती है। कागज और छपाईका व्यय सफल नहि होता है । यथायोग्य संशोधन किया गया हो, तो उसका तेज अन्तरङ्गसे चमकता है। और जो भूलें - अशुद्धियाँ एक नकलमें छपती हैं, वे हजारों नकलोंमें छप जाती हैं, रह जाती हैं, ऊठ आती हैं। अतः छपाने के पहिले ही सावधानतासे, दक्षतासे शुद्धि कर लेनी सम्पादकोंके और प्रकाशकों के लिए आवश्यक होती है, तब वे यशस्वी बनते हैं। सम्भव है, अशुद्धि रहनेमें अन्य भी कारण हो सकते हैं - लेखों की कॉपri यथायोग्य शुद्ध न होना, उनके अक्षर बराबर न पढ़ सके ऐसा होना, ग्रन्थको are भवधि प्रकाशित कर देनेकी जवाबदारी, और प्रेसवालोंके भी कुछ दोष कम अनुभव, टाइपकी साधनोंकी, अनुभवी कार्यकरोंकी न्यूनता, मशीन में छपते समय अक्षर, मात्रा, ह्रस्व, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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