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________________ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध D कम है है, वैसा बन्धारण से कभी भी नहीं होता! ज्यादा क्या ? इस विषय पर जितना लिखा जाय उतना ही कम है ! “जमाना बढ रहा है आगे, धर्म क्या ? अधर्म क्या ? पुण्य क्या ? पाप क्या? भौतिक क्या? आध्यात्मिक क्या? इसे भूला जा रहा है आज का मानव ? । रहे हैं उपासक और बढते जा रहे हैं उपास्य ? घट रहे हैं पूजक, तब प्रज्यों की संख्या बढ़ रही है। आज हम देख रहे है एक ओर मंदिरों के रक्षक और पूजक नहीं दिखते जब दूसरी ओर समाज के कर्णधार नये मन्दिर तैयार करवाने और बडे उत्सवों में ही अपना नाम समझते हैं। यह भी हमारे विचारों से ठीक नहीं हो रहा है !" - वर्तमान विवार हा, यह भी ठीक है, परन्तु वर्तमान की गतिविधि को देखते हैं तो ऐतिहासिक एवं शिल्पकलायुक्त मन्दिरों एवं स्थानों से भारत ही नहीं अन्यदेश भी अपना इतिहास और अपनी कलाकृति विश्व के सन्मुख रख रहे हैं। जैन शिल्पकला ने भारत में ही नहीं विश्व में अपना एक अनुठा अस्तित्व रक्खा हैं । आज हम उस शिल्पकला से यह अनुमान लगा सकते हैं कि जैन समाज किस समय कैसा तेजोमय था। आज का विकृत हुए दिमाग का मनुष्य दिनों दिन शास्त्रश्रद्धासे पतित होता जा रहा है ! धर्मको ढोंग और शास्त्र को थोथे समझता जा रहा है उस को जैन धर्म की प्राचीनता समझाने के लिये सर्व प्रथम ऐसे ही कला स्तंभ बताने पडेंगे जिन में जैन धर्म की प्राचीनता अंकित की गई है। इसी लिये प्रत्येक शतादीमें नये मन्दिरों का निर्माण कर उस समय की कलाकृति का संरक्षण किया जाता है । ___ भारतवर्ष में ही देखें ? यहाँ पर बौद्धधर्मावलंबी कितने वर्ष हुए कम हो गये थे और नाम शेष भी होने आया परन्तु यहाँ पर रहे उन के स्तूप और शिल्पकला से भूषित मंदिर दिखाई पड़ते हैं । जिस से यह कहा जा रहा है कि एक समय बौद्धधर्मी भी यहाँ पर बहु संख्या में थे । यदि ये चीजें नहीं मिलती तो सब कैसे कह ककते कि एक समय भारत में भी बौद्धों का अस्तित्व था। . प्रत्येक शताब्दी साहित्यनिर्माण और शिल्पकार में अपनी अपनी विशिष्टता रखती हैं हम पांचसौ वर्ष पूर्व की शिल्पकला को देखना चाहेंगे तो देख सकेंगे अ : हजार वर्ष पूर्व की भी। हरएक संवत्सर में जैन धर्म विद्यमान था, चमकता था । जैन धर्मवीर थे, कर्मवीर थे और थे देशभक्त । भारतीय शिल्पकला रक्षक में जैनियों का जो योग रहा है और वर्तमान में भी है अवर्णनीय है। जन शिल्पकला को यदि हमारे पूर्वजों ने नहीं टिकाई रखी होती तो आज जो हम देख रहे है वह हमारे सामने नहीं होता। इतना जरूर कह सकते हैं कि जहाँ एक मदिर हों वहाँ पर दूसरे नये मंदिरों का निर्माण न करें परन्तु ऐसा नहीं कह सकते कि नये मंदिर निर्माण करना ही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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