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________________ विषय खंड निवृत्ति लेकर प्रवृत्ति की ओर अग्नि में काष्ट की थाली, कणक में जल, सज्जनों के वाक्य और स्त्रियों का विवाह एक ही वक्त होता है । ऐसे ओर भी अनेक प्रमाण दिये जा सकते है । जो ग्रन्थों में लिखे हुए है ! aft पुनर्लन और विधवा विवाह के लिये कोई प्रतिबन्ध नहीं हों तो न मालुम कब अबला सबला बन कर के क्या नहीं कर देगी ? जिस का परिणाम बहुत ही बूरा आ सकता है। वर्तमान विचारों के साथ साथ यह कह दें कि समाज रचना प्रतिबन्ध ही गलत हैं । परन्तु इस में आत्म साक्षी कैसे हो सकेगी। ४५ भारतीय दर्शनकारों ने पतिव्रत को व्रत माना है । यदि समाज के तरफ से धार्मिक दृष्टि या व्यावहारिक दृष्टि से किसी प्रकार के नियम बने हुए नहीं होते तो एक स्त्री एक के बाद दूसरा पति करने की घून में क्या नहीं करती ? सब कुछ करती और फलस्वरूप कितने ही जनों का जीवन भी संकटमय हो जाता ! एवं पतिव्रत जैसे महान् व्रत को पालन करने की भारतीय दर्शनकारों की आज्ञा का भी उल्लंघन हो जाता । मान लो किसी एक स्त्री की शादी कोई एक अच्छे घरानेवाले लडके के साथ हुई । भाग्यवशात् वह विमार हो गया । और पास में जो लक्ष्मी थी वह भी कूच कर गई । उस समय ऐसी समाजव्यवस्था और बंधन नहीं होने पर वह स्त्री क्या उस निर्धन और रूग्ण आदमी की सेवा करती हुई बैठी रहेगी ? नहीं कदापि नहीं । वह यही समझेगी मुझे क्या ? मैं क्यों इतने कष्ट ऊठाऊं ? जब कि मेरे लिये एक नहीं अनेक पति मौजूद हैं । अपनी इज्जत के कारण अथवा ऐसे न छोडकर किसी भी प्रकार से उस रुग्ण को खत्म कर देगी तो फिर कितना घोर अन्याय और पाप बढ जायगा ! और पतिव्रत जैसा शब्द ही साहित्य के पृष्ठों से ऊड जायगा ! यदि विधवाविवाहपुनर्लग्न के लिये समाज का कोई बन्धन - प्रतिबन्ध नहीं होता तो आज समाज की क्या दशा होती ? पति पत्नी के तरफ से सशंक रहता ! और पत्नी किसी प्रकार की चिंता न रखकर मनमाने ढंग से जिस के साथ जब जाना हो तब चली जाती; जिस के अनेक प्रमाण अपन विदेश के न्युझ पेपरों से जानते हैं । विधवाविवाह और पुनर्लग्न से जो अव्यवस्था और हिंसा बढ़ती है वैसा बंधारण से कभी भी नहीं हो सकता । इस के सम्बंध में जब विचार करने के लिये बैठते हैं तब दिमाग से यही शब्द मिकलते हैं कि 'दर्शन, नीति और समाज व्यवस्था करनेवाले महापुरुषों ने कितना गहरा सोचकर नियम बनाये हैं, जिन को आज का क्षुद्र दिमाग का व्यक्ति समझ भी नहीं पा रहा है, और अपने क्षुद्र विचारों को जनता के सामने रखता है । विधवा विवाह और पुनर्लग्न से जो अव्यवस्था और हिंसा का जोर बढता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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