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________________ विषय: खंड विश्व शान्ति काः अमोघ उपाय अपरिग्रह भी पाप होते हैं वे सारे परिग्रह के कारण ही । मनुष्य दूसरे की हिंसा करता है.. अपने स्वार्थ के लिए-बचाव के लिए या परिग्रह को बढ़ाने के लिए । जिन व्यक्तियों या वस्तुओं पर मेरापन छा गया उनके संगठन व संवर्धन के लिए दूसरे का कितना ही नुकसान हो, ध्यान नहीं दिया जाता । इसी तरह झूठ बोलना, चोरी करना, कपट करना, लोभी होना दूसरों से द्वेष हर्षा करना, इन सारी प्रवृतियों के मूलमें: परिग्रह ही है । धनादिक उत्पन्न करने में इसीलिए अठारह पाप लगना बताया गया है: । उसके उत्पादन भोग संरक्षण, संवर्धन में अठारह पाप आजाते हैं । तीर्थकर सभी क्षत्रिय व राजवंश के थे । उनके घर में किसी तरह की कमी नहीं थी धन, धान्य, कुटुम्ब परिवार सभी तरहसे पूर्ण थे फिर भी उन्होंने त्याग की स्वीकार किया इसका एक मात्र कारण यही था कि उन्हें समत्व की ओर बढना था। सीमित ममत्व से ऊँचे उठे बिना समभाव हो नहीं सकता । राग और द्वेष, मोह और अज्ञान जनित है। कर्मों के मूल बीज राग और द्वेष हैं । इसलिए उन्होंने सोचा, कि द्वेष भी राग के कारण होता है । और वह राग भाव ममत्व है । शरीर को अपना मान लेना, धन, घर, कुटुम्ब आदि में अपनापन आरोपित करना ही ममत्व है, राग है, परिग्रह है । समत्व की प्राप्ति के लिए परिगह का त्याग अत्यन्त आवश्यक है । अभ्यंतर परिग्रह के १४ प्रकार बतलाये गये हैं । हास्य, रति, अरति भय, शोक, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद और मिथ्यात्व । बाह्य परिग्रह धन धान्य, क्षेत्र, वस्तु, द्विपद, चतुस्पद, सोना, चाँदी, ताँबा आदि धातुएँ व ऊन पदार्थ । इनका संग्रह करना इनपर ममत्व करना ही परिग्रह है । साधु के लिए परिग्रह सर्वथा त्याज्य है । गृहस्थ के लिए भी अनावश्यक वस्तुओं का त्याग और आवश्यक का परिमाण करना, सीमा निर्धारण करना जरूरी होता है । आवश्यकताओं का कम करते जाना जरूरी बताया गया है । इससे इच्छाओं पर अंकुश रहता है । ३७ कोई भी प्राणी न कुछ साथ लेके आता है न साथ कुछ ले जा सकता है । फिर ममता क्यो ? संग्रह वृति क्यों ? तृष्णा व हाय हाय क्यों ? संघर्ष द्वेष व हिंसा क्यों ? वस्तुएं सभी के उपयोग व उपभोग के लिए है व्यक्ति विशेष का अभाव पर ही संघर्ष का कारण है । वस्तुएं सभी यहीं पडी रहेंगी, हमें छोड़कर जाना होगा, 'जीवन क्षणभंगुर है, न मालूम कब मृत्यु आ जाय, अतः अनीति के प्रधान कारण ममत्वको छोड म भाव को अपनावे, वही कल्याणका पथ है. विषमताओं का मूल भी परिग्रह में हैं । मनुष्य को अहंवृति ने ही भेदबुद्धि सिखाई है । वह अपने को बहुत बड़ा विशेष बुद्धि मान, धनवान आदि मान बैठता है, तो दूसरों के प्रति तूच्छ भावनाएँ पैदा हो जाती है । जातीय अहंकार व अपने विचारो का पका आग्रह भी परिग्रह ही है। धन आदि वस्तुओं की कमी-बेशी से उच्चापन व नीचापन की भेद रेखा आज सर्वत्र दिखाई देती है । जिसके पास धन, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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