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________________ विश्व शान्ति का अमोघ उपायः अपरिग्रह लेखक-श्री अगरचन्द नाहटा : विश्व में जो चारों ओर अशान्ति के बादल छारहे हैं और मनुष्य मनुष्य में जो वैरबिरोध बढ़ रहा है उसके कारणों पर गम्भीरता से विचार करने पर मूर्छा आसक्ति या ममत्व ही उसका मूल कारण प्रतीत होता है । मनुष्यों में संग्रह की प्रवृति बढ़ती जा रही है। उनकी आवश्यकताएँ दिन प्रतिदिन बढ़ रही हैं और उन आवश्यकताओं से भी अधिक उसकी संग्रह प्रवृति नजर आरही है । संग्रह ही संघर्ष का कारण है । एक ओर धनादि वस्तुओं का ढेर लगता है और दूसरी ओर उनका अभाव हो जाता है । एक जगह गड्डा खोदते है तो दूसरी जगह उसकी मीट्टी का ढेर उँचा पहाड़ सा लग जाता है। इसी तरह जिन लोगों द्वारा जिन २ वस्तुओं का जितना अधिक रूप में संग्रह किया जाता है उन वस्तुओं की दूसरों को कमी पडेगी ही । और जब एक के पास आवश्यकता से अधिक दिखाई देगा तो जिनके पास उन वस्तुओं की कमी हैं उसके हृदय में एक आन्दोलन व संघर्ष उत्पन्न होगा ही । और उसीका परिणाम आगे चलकर चोरी, लूटमार, युद्ध, हिंसा-द्वेष आदि विविध रूपों में प्रकट होगा। ___ मनुष्य की तृष्णा का अन्त कहाँ ? चाहे उसे विश्व के सारे पदार्थ मिल जाँय पर उसकी इच्छाएँ-और अधिक पाने को ही लालचित रहेगी। जिसके पा नहीं है वह चाहता है कि किसी तरह जीवन-यापन योग्य सामग्री मिल जाय तो बस । जब उतना मिल जायगा फिर सोचेगा-अरे इतने से क्या होगा ? मेरा शरीर बीमार पड़ गया या अन्य किसी कारण से मैं उत्पादन में असमर्थ रहा तो इस थोडी सी सामग्री से कैसे काम चलेगा ? घर वाले भी तो हैं । बालबच्चों के लिये भी तो कुछ और चाहिए । इस तरह वर्तमान से भविष्य की ओर बढ़ता २ वह सात और १०० पीढ़ी तक का सामान संग्रह करना आवश्यक समझ बैठता है। पूर्व इच्छाओं की पूर्ति होते ही नई २ इच्छाएँ जाग उठती । खाने, पहनने, रहने आदि के साधारण साधन अब उचित नहीं लगकर, साधारण से बढ़ते हुए उँचे से उँचे स्तर की चीजों की चाह लगेगी । इस तरह सग्रह की प्रवृति का और-छोर नहीं। जो चीजें पास होगी उन पर मेरापना-ममत्व, आसक्ति होती जायगी । और जब किसी पर ममत्व हो जाता है तो उसको किसी तरह आंच नहीं आय, कोई ले नहीं ले इस चिन्ता से संरक्षण और संवर्धन की भावना बढेगी । अन्य व्यक्ति उन वस्तुओं को लेना चाहेगा तो उससे संघर्ष हो जायगा । तृष्णावश दूसरे की चीजों को लेने की प्रवृति भी होगी । अतः सारी अशान्ति का मूल, मूर्छा है और भगवान महावीर ने इस ममत्व को ही परिग्रह बतलाया है । संसार में जितने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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