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________________ श्री यतीन्द्रपरि भमिनंदन ग्रंथ अधिकार आदि का परिग्रह अधिक है वह अपने को बड़ा समझकर दूसरों के प्रति घृणा की भावना रखता है और जो नीची श्रेणी के हैं वे अपने से अधिक समृद्धि देखकर ईर्ष्या वश उससे जलते रहते हैं। इसी से प्रेम, मैत्री और अहिंसा, करूणा, सहानुभूति, सहयोग और शान्ति के बदले द्वेष घृणा कलह, भेद, विरोध, संघर्ष, भेद बुद्धि, ईर्ष्या व अशान्ति की होलियाँ सुलग रही हैं। अपने परिग्रह को बढाने के लिये और दूसरों के अधिकार छीनने के लिये ही युद्ध आदि अशान्ति जनक कार्य होते हैं । यदि हम अपनी आवश्यकताओं को कम और सीमित करलें, इच्छाओं पर अंकुश लगादे या दमन करलें तो अशान्ति का कारण ही नहीं रहेगा। सन्तोष से प्राप्त वस्तुओं में शान्ति और सुख का अनुभव करने लगेगें । आवश्यकता से अधिक वस्तुएँ एक जगह संग्रहीत न रहने पर सबके लिए सलभ हो जायेंगी। फिर समाजवाद साम्यवाद, के नाम से जो संघर्ष और विरोध चल रहे हैं वे स्वयं समाप्त हो जायेंगे। वास्तव में विश्व में वस्तुओं की कमी नहीं है परन्तु जो अभाव दिखाई देता है उसका प्रधान कारण है-किसी का आवश्यकता से अधिक संग्रहीत कर रखना और पुरुषार्थ हीन जीवन । जिससे जो उत्पादन नहीं करते पर उन्हें भोगने या उपभोग को तैयार होते हैं । जैन प्रन्यानुसार भगवान ऋषभदेव के समय तक मनुष्यों की बहुत सीमित आवश्यकताएँ थी और उनकी पूर्ति कल्पवृक्ष आदि से हो जाती थी। संग्रह की आवश्यकता ही न थी, तो वैर विरोध का कारण ही नहीं था। पर एक ओर आवश्यकताएं बढ़ी-दूसरी ओर उत्पादन कम हुआ तो संघर्ष पैदा हुआ। फिर पुरुषार्थ से उत्पादन बड़ा तो संग्रह पति ने घर दबाया। परिस्थिति. अशान्ति बढती रहने की ही बनी रही, और आज भी उसी का बोल बाला है । ___ यदि हम शान्ति चाहते हैं तो इच्छा, तृष्णा और आवश्यकताओं पर अंकुश लगाना होगा । संग्रह की प्रवृति बन्द करनी होगी । ऊँचनीच के मेद भावको मिटाना होगा । अहं और ममत्व पद को घटाना होगा, समस्त प्राणियों को भपने ही समान मानने और स्वयं भी राग-द्वेष से अभिभूत न होनें रूप समभाव जमाना होगा । सबको प्रेम, मैत्री, सहानुभूति और सहयोग से जीना होगा । जीवन में संयम, त्याग को प्रधानता देकर निवृति-अनासक्ति की ओर बढ़ते रहना होगा। परिग्रह के कारण ही आज अनीति का साम्राज्य है। मनुष्य में सन्तोष नहीं रहा । दिनोंदिन आवश्यकताएँ और संग्रहवृति बढ़ रही है । अपने स्वार्थ के पीछे मनुष्य इतना अन्धा है कि दूसरे का चाहे दम ही निकल जाय उसकी उसे तनिक भी परवाह नहीं । भेद बुद्धी इतनी बढ़ गई है कि देशभेद, प्रान्तभेद, जातिभेद, धर्म और सम्प्रदायभेद, काले और गोरे का भेद, घनी निर्धन का भेद शिक्षित और अशिक्षित का भेद,स्त्री और पुरुष का मेद, खानपान और रीति रिवाज का भेद यावत हर बात में भेद ही भेद नजर आते है । तो प्रेम और मैत्री का विस्तार ही कैसे ? हमारे बीच रंग बिरंगी अनेको मजबूत दिवारें खडी करदी गई है। तो फिर एक दूसरे से भापस में टकरायगे ही। और ये सारे भेद अहं या ममत्व पर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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