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________________ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध प्रकार होगें १, २३ भंग होते हैं। इससे उसका नाम सप्तभंगी है। प्रश्न हो सकता है भंग सात ही क्यों ? मानव की जिज्ञासा प्रत्येक पदार्थों के जानने में सात ही प्रकार की होती है, और उत्तर सात ही प्रकार से दिये जाते हैं, अतः सात ही भंग बनते हैं। इससे न्यून या ज्यादा नहीं। गणित की दृष्टि से ही देखिए । जैसे २, २, ३ हैं उनके भंग इस ३ ४, यो ४ और ऊपर के तीन यो सात होते हैं । क्रम से सातों की स्थापना इस प्रकार होगी। जो एक मरीज के उत्तरसहित बताया जाता है । आप किसी मरीज से रोग का हाल पूछेगे वह निम्न प्रकारले उत्तर देगा। स्याद् अस्ति-विमारी है। स्याद् नास्ति-भयंकर नहीं है । म्याद् अस्ति नास्ति-बीमारी है अवश्य किन्तु भयंकर नहीं। स्याद् अवक्तव्य - दोनों बातों का कथन एक साथ नहीं होता । स्याद अस्ति अवक्तव्य-अकथ्य होती भी रुग्णावस्था है अवश्य । स्याद् नास्ति अवक्तव्य-अकथ्य होते भी भयंकरता तो नहीं है । स्याद अस्तिनास्ति अवक्तव्य-रुग्णा है भयंकर रूपसे नहीं अवस्था अकथ्य हैं अर्थात् वचनीय नहीं है । - ये सातों भंग इसी प्रकार अनंत धर्मापर समान रूप से लागू होते हैं। प्रत्येक पदार्थ के प्रत्येक धर्म का . ज्ञान इन सात भंगों से सर्वतोमुखी बनता हैं । ये सातों भंग नियमित है संशय के प्रकार ही सात होनेसे । यदि ये प्रश्न इच्छित हो तो यह स्याद्वाद स्याद्वाद न होकर अव्यवस्थावाद वनजाय, किन्तु यह नियमित होनेसे व्यवस्थितवाद है। इन सातों भंगों में आया हुवा स्याद् शब्दही व्यवस्था और अनेकान्त वाद का द्योतक है। मानव को चाहिए प्रत्येक पदार्थों का निश्चय सातों भंग को घटाकर करे । एक या दो रूप मात्र से जानी बात सर्वथा सत्य नहीं हो सकती। स्याद्वाद की अक्षता से दिये जाते दोष । स्याद्वाद यह एक रत्नाकर है। गहराई में उतरनेवाला चन्द्रकान्त आदिसे बहुमूल्य रत्न प्राप्त करते हैं । किन्तु ऊपर ही रह पानी चखनेवाले लवणता का दोष देते हैं। इस प्रकार स्याद्वाद से अनभिज्ञ इसपर आठ दोष देते हैं। शंका-स रूप से वे निम्न प्रकार है। १ शंका-अस्ति नास्ति एक पदार्थ में विरोध है ? समाधान-विरोध का साधन अभाव है। जैसे एक वस्तु में घटत्व और पटत्व दोनों विरोधि हैं, परन्तु द्रव्य को छोड़ दिया जाय और केवल उस वस्तुको ही देखा जाय तो इन रूपों में विरोध नहीं हैं । द्रव्य की दृष्टिसे वस्तु की सत्ता है। परन्तु ? . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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