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________________ % विषय खंड स्यादाद की सैद्धान्तिकता इतने गंभीर सिद्धान्त का ज्ञान मानव को अवश्य प्राप्त करना चाहिए । बुद्धिवाला अवश्य ही सत्य को प्राप्त करने की इच्छा पर सत्य को प्राप्त कर सकता है। , स्याद्वाद में स्थानिपात से सिद्ध हुआ अनेकान्तद्योतक अव्यय है। यानि कथञ्चित् होना और कथञ्चित् न होना । वस्तु सदा अपने रूप से होती है, पररूप से नहीं । अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से ही वस्तु अस्तिरूप होती है किन्तु पर द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव से अस्तिरूप नहीं होती। जैसे गाय को ही लें। गाय, गाय रूप से अस्ति है किन्तु गघे या घोडे रूप से अस्ति नहीं होती । यदि पर रूप से भी अस्तिरूप हुई तो गाय, गधे और घोड़े में कोई अन्तर ही नहीं होगा, और गाय शब्द से ही घोड़े और गधे का ज्ञान होने लगेगा । एवं यदि स्वरूप से भी कथञ्चित् अस्ति रूप नहीं होगी तो गाय. गाय ही नहीं रहेगी। यानि गाय का अस्तित्व ही नष्ट हो जायगा। वस्तु एक भी होती है और अनेक भी। इससे इस स्थाबाद का अपर नाम अनेकान्तवाद भी है । वस्तु सदा अनेकान्तधर्मात्मक होती हैं । अनंत धर्म एक ही वस्तु में स्थान प्राप्त करते है। कहा है-"अनंतधर्मात्मक वस्तु एक ही मनुष्य को कोई पिता मानता है, तो कोई पुत्र कहता है । कोई काका कहकर पुकारता है, तो कोई भतीजा कहकर प्यार करता है। इन सभी विरोधि धर्मों का समन्वय स्याद्वाद करता है । वह कहता है सभी का कथन न्यायसंगत है । पुत्र की अपेक्षा वह पिता है, और पिता की अपेक्षा पुत्र, भतीजे की अपेक्षा काका है, और काके की अपेक्षा से भतीजा। अपेक्षावाद से एक वस्तु में अनंत धर्म समाते हैं विरोध की कहीं गुंजाइस ही नहीं हैं। जन्मान्ध मानवमण्डली हस्तस्पर्श से हाथी के भिन्न २ अवयवों का ज्ञाम करती है एवं आपस में कलह करती है, अपने को ही सत्य मान कर । किन्तु नेत्रवाला मानव सम्पूर्ण हाथी के ज्ञान को रखता है और सभी का समझौता कर देता है. इसी प्रकार स्थाद्वादवादी काल, नियति, स्वभाव, कर्म और पुरुषार्थ पाँचो के विषय में एकान्त मानकर झगड़ने वालों का समन्वय कर समाधान कर देता है। स्थाद्वाद के मुख्य मेद तीन हैं-१ स्याद् अस्ति, २ स्याद् नास्ति, ३ स्याद् अवक्तव्य । स्याद् अस्ति-वस्तु सदा स्वरूप से होती है। ... स्याद् नास्ति-वही वस्तु पररूप नहीं होती। स्याद् अवक्तव्य-दोनों रूपों का एक साथ कथन नहीं किया जा सकता, कथञ्चित् । यदि सर्वथा कहा ही नहीं जा सकता हो तो अवक्तब्य यह शब्द भीनहीं कहा जा सकता किन्तु अनुभवयुक्त है कि अन्य को समझानेमें अवक्तव्यरूप शब्दों का प्रयोग होता है । ये तीनों धर्म वस्तु में एकसाथ पाये जाते हैं । जैसे दधि मंथन करनेवाली बहन एकतरफकीरस्सीखींचती है दूसरी तरफ की ढील देती है, किन्तु छोड़ती किसी को नहीं। ऐसे पदार्थ स्वरुप से अस्ति रूप है और दोनों धर्मों का कथन एक साथ नहीं कहा जा सकने के कारण अवक्तव्य रूप है। इन्हीं मूल तीन भंगो से ४ भंग और बनते हैं । तीन और चार मिलकर सात Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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