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________________ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध सभी नय अपनी सीमा में सत्य हैं हर' दूसरे को जब असत्य घोषित करते हैं तभी मिथ्या होजाते हैं । किन्तु अमेकान्ता नयों के बीच सम्यक् और मिथ्या की विमेदक रेखा नहीं खींचता । स्वसिद्धान्त के प्रतिपादक नय सत्य हैं। दूसरे के खंडन करने में मिथ्या भी हैं। हर चिन्तन के पिछे सापेक्षदृष्टि होनी चाहिए । यदि हमारे पास सापेक्षदृष्टि है तो हर दर्शन के पास से सत्य तत्व ग्रहण कर सकते हैं। फिर वह नित्यवादी हो या अनित्यवादी । सामान्य वाद का प्रतिपादक हो या विशेष वाद का समर्थक । विश्व के समस्त पदार्थ एक और अनेक रूप. हैं उसमें एक ओर नित्यत्व के दर्शन होते है । दूसरी ओर वही पदार्थ प्रतिपल परिवर्तित होता हुआ दृष्टिगत होता है । वस्तुके ध्रुव तत्त्व की ओर जब हमारा दृधिबिन्दु टिकता है तो वस्तु के शाश्वत सौन्दर्य के दर्शन होते हैं । और जब हम उसके उत्तर रूपों की ओर दृष्टि पार करेंगे तो प्रतिक्षण विनाशी रूप दिखलाई देगा । आचार्य हेमचन्द्र द्रव्य और पर्याय को विभेद करते हुये कहते हैं:अपर्यय वस्तु समस्यमानं अद्रव्यमेतच्च विविच्यमानं । अन्ययोगयवच्छेदिका २३ , जब हमारी दृष्टि भेदगामिनी बनती है तब वस्तु का परिवर्तित होनेवाला रूप सामने आता है और जब दृष्टि अभेदगामिनी बनती है तब वस्तु का अखंडरूप दृष्टिपथ में आता है । जब हम आत्मा के भेदरहित रूप को चिन्तन पथमें लायेंगे तब हमें अनंत अनंत आत्माओं के बीच एक आत्मतत्व के दर्शन होते हैं। यहीं आत्मा द्वैत का प्रतिपादक “एगे आया" भी सत्य है । भेदानुगामी दृष्टिमें आत्मा के मानुष, देव आदि पर्याय रूप के दर्शन होते हैं । दार्शनिक शब्दावलि में भेदगामीनी दृष्टि पर्यायदृष्टि है और अभेदगामिनी दृष्टि द्रव्यास्तिक नय है । पर्यायनय वस्तु के प्रतिपल परिवर्तित होनेवाले रूपको ही स्वीकार करती है। व्यास्तिक नय ध्रुव अंशको स्वीकार करती है । किन्तु विश्वव्यवस्था उभय के समन्वय में ही संभव है। युवक को अपने बचपन को चेष्टाओं का स्मरण हो आता है। भावी जीवन को सुखमय बनाने के लिये प्रयत्न करता है। अतः जीवन की इस बदलती हुई छाया में भी एकसूत्रता के दर्शन होते हैं । यही द्रव्यास्तिक नय की अभेद गमिनी दृष्टि है। दूसरी ओर बचपन के बीच की भेदप्रतीति स्पष्ट ही है। शरीर और बुद्धि का विकास नये खून में नई क्रान्ति करने की तड़प दोनों के बीच विभाजक रेखा खींचती है । यहीं पर्यायदृष्टि सफल है । पर युवक क्या है? वह दोनों का मिलाजुला रूप है । आचार्य सिद्धसेन के शब्दों में :--- परिपुण्ण जोव्वणगुणो जह बलजइ बालभावचरिएण । कुणा य गुणपणिहाणं अणागय सुहोवहाणत्थं ॥ सन्मतितर्क -४१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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