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________________ . स्याद्वाद और उसकी व्यापकता लेखक – मुनि श्री मनोहर मुनिजी, 'शास्त्री' 'साहित्यरत्न ' सत्य के अनंत रूप हैं और अनंत रूपों में ही उसके दर्शन किये जा सकते हैं । उसे देश काल की सीमा में बांधा नहीं जा सकता । संप्रदायों की चार दीवारी में उसे कैद नहीं किया जासकता । क्योंकि असीम को सीमा में बांधना उसकी अवमानना है अतः सत्य को हम विध रूप में ही पासकते हैं। अनेक रूपात्मक सत्य को अनेक रूपों में स्वीकार करना ही अनेकान्त है । इसलिये अनेकान्तदृष्टि पूर्ण सत्य है । वह वस्तु के अनंत धर्मोको स्वीकार करता है । अतः वह विभेद में अभेद देखता है । संघर्षो में समन्वय साधता है । विचारजगत का अनेकान्त जब वाणी में उतरता है तब वह स्याद्वाद कहलाता है । एक विचारकण यदि दूसरे विचारकण से एकदम निरपेक्ष नहीं है तो स्याद्वाद कहलाएगा । विश्व का प्रत्येक विचारक जीवन और जगत के संबन्ध में अपनी एक नई दृष्टि रखता है । किन्तु यदि वह दूसरे विचारक से एकदम निरपेक्ष होकर अपने आपको पूर्ण सत्य का ज्ञाता मान लेता है तब वह मिथ्यात्व बन जाता है। अंश रूप से वे सभी सत्य हैं । क्योंकि चिन्तन का हर अंश सत्यके एक अंश को अनावृत करता है । सागर की लहर सागर का ही एक अंश है, वाणी का हर अंग सत्य का एक अंश है । आचार्य सिद्धसेन चिन्तन की अनुभूति में दर्शनकी अभिव्यक्ति देते हुए कहते हैं: जावइया वयणवहा, तावइया चेव होंति णयवाया । जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया ॥ - सन्मतितर्क ३-४७ जितने वचनपथ हैं उतने ही नयवाद हैं, और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं । अर्थात् प्रत्येक विचारक की वाणी एक सत्य का परिचय है । उसे पूर्ण सत्य मानना मिथ्या होगा तो उसे मिथ्या कहना भी मिथ्या होगा । क्योंकि अनेक अकान्तों का समूह ही तो अनेकान्त है । जबतक एक सत्यांश अपने आपको पूर्ण मानकर दूसरे सत्यांश के लिये द्वार बन्द नहीं करता तब तक वह मिथ्या भी नहीं है । पर अंश को पूर्ण मानलेने का मोह ही मिथ्यामत है । दर्शनशास्त्र के दिवाकर आचार्य सिद्धसेन के शब्दों में ------- Jain Educationa International णिय वयणिज्जसच्चा सब्ब नया पर वियालणे ते उण ण दिट्ठ समओ विन्नमइ सच्चे व मोहा । अलिए वा । सन्मतितर्क :- १-२५ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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