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________________ . अन्य विषय खंड स्याद्वाद और उसकी व्यापकता युवक बचपन से सर्वथा भिन्न भी नहीं है क्योंकि वह बचपन की सुकोमल स्मृतियों में जीता है और उसके साथ पूर्ण संबद्ध भी नहीं है क्योंकि हम उसे बालक भी नहीं कह सकते । जीवन की यही भेदाभेदगामिनी दृष्टि पदार्थसार्थ के यथार्थ स्वरूप को पा सकती है । आत्मा ही क्यों, विश्व के समस्त पदार्थ भेदाभेद रूप में अवस्थित हैं । पर्यायदृष्टि से उनमें उत्पत्ति और विगम भी चालू है और द्रव्यास्तिक दृष्टि से सदा अवस्थित है । आचार्य हेमचन्द्र पदार्थ मात्र का स्वरूप एक बताते है "आदीपव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रा नहि भेदि वस्तु" । तानित्यमेवैकमनित्यमन्य-दिति त्वदाज्ञा द्विषतां प्रलापाः । . अन्ययोगव्यवच्छेदिका-५ ..अनित्य प्रदीप और नित्य आकाश दोनों का एक स्वभाव है । पदार्थ मात्र उत्पाद -व्यय-ध्रौव्यं रूपं है। एक नित्य और दूसरे को अनित्य बताना बुद्धि की विडम्बना है । दीपक नित्य भी हो सकता है और आकाश अनित्य भी। दीपक से आकाशा पर्यन्त पदार्थ द्रव्यास्तिक दृष्टि से ध्रुव और पर्यायास्तिक दृष्टिसे अनित्य हैं । घट फूट जाता है; अतः अनित्यता स्पष्ट है पर टुकड़ों में भी मृद्रव्य अनुगत है अतः वह नित्य भी है। . इस प्रकार अपेक्षावाद विचारजगत के शत-सहस्र संघर्षों को समाप्त कर देता है । बड़े बड़े दार्शनिक जिस समस्या को लेकर वर्षों तक झगडते रहे, स्याद्वाद उसका एक मिनिट में समाधान देता है । दृष्टिं बदली कि सृष्टि भी बदल जाती है। परस्पर निरपेक्ष बने नयप्रवादरूप अन्य दर्शन मिथ्यारूप हैं । किन्तु जब उनमें समन्वय का सौरस्य आता है वे ही सम्यक् बन जाते हैं । स्वाद्वाद विचारशोधन का बहुत बड़ा माध्यम है। वह मानव को "ही" की कैद से मुक्त करता है क्योंकि "ही" की कैंची मानव की स्वतंत्र उड़नेवाली बुद्धि के पंख काट देती है और विचारसृष्टि की नई उपज से उसे वंचित रखती है । 'ही' के द्वारा मानव अपने को किसी पंथ या वादविशेष से अपने को बांधकर उसी को पूर्ण सत्य मान बैठता है। किन्तु अनेकान्त 'भी' के माध्यम से सत्य को सदैव आदर देता है फिर वह चाहे किसी पंथ से आया हो या किसी संप्रदायविशेष से । स्वद्विाद विचारसहिष्णुता को जन्म देता है । एक दूसरे के विचारों का समन्वय करने की प्रेरणा देता है । एक प्रकारसे वह वैचारिक सहअस्तित्व को जन्म देता है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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