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________________ बुद्ध का जीवन जितना लोगों में हिलने-मिलनेवाला तथा उनके उपदेश जितने सीधे-सादे लोकसेवागामी हैं वैसा महावीर का जीवन तथा उपदेश नहीं है। बौद्ध अनवार की बाह्य चर्या उतनी नियन्त्रित नहीं रही जितनी जन अनगारों की। इसके सिवाय और भी अनेक विशेषताएँ हैं जिनके कारण बौद्ध सम्प्रदाय भारत के समुद्र और पर्वतों की सीमा लाँघकर उस पुराने समय में भी अनेक भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी, सभ्यअसभ्य जातियों में दूर-दूर तक फैला और करोड़ों अभारतीयों ने भी बौद्ध आचार-विचार को अपने-अपने ढंग से अपनीअपनी भाषा में उतारा व अपनाया जबकि जैन सम्प्रदाय के विषय में ऐसा नहीं हुआ । । यद्यपि जैन सम्प्रदाय ने भारत के बाहर स्थान नहीं जमाया फिर भी वह भारत के दूरवर्ती सब भागों में धीरे-धीरे न केवल फैल ही गया बल्कि उसने अपनी कुछ खास विशेषताओं की छाप प्रायः भारत के सभी भागों पर थोड़ी बहुत जरूर डाली। जैसे-जैसे जैन सम्प्रदाय पूर्व से उत्तर और पश्चिम तथा दक्षिण की ओर फैलता गया वैसे-वैसे उस प्रवर्तक धर्म वाले तथा निवृत्ति-पंथी अन्य सम्प्रदायों के साथ थोड़े-बहुत संघर्ष में भी आना पड़ा। इस संघर्ष में कभी तो जैन आचारविचारों का असर दूसरे सम्प्रदायों पर पड़ा और कभी दूसरे सम्प्रदायों के आचार-विचारों का असर जैन सम्प्रदाय पर भी पड़ा। यह क्रिया किसी एक ही समय में या एक ही प्रदेश में किसी एक ही व्यक्ति के द्वारा सम्पन्न नहीं हुई बल्कि दृश्य । अदृश्य रूप में हजारों वर्ष तक चलती रही और आज भी चालू है । पर अन्त में जैन सम्प्रदाय और दूसरे भारतीय अभारतीय सभी धर्म-सम्प्रदायों का स्वायी, सहिष्णुतापूर्ण समन्वय सिद्ध हो गया है जैसा कि एक कुटुम्ब के भाइयों में होकर रहता है। इस पीढ़ियों के समन्यय के कारण साधारण लोग यह जान ही नहीं सकते कि उसके धार्मिक आचारविचार की कौन सी बात मौलिक है और कौन सी दूसरों के संसर्ग का परिणाम है! जैन आचार-विचार का जो असर दूसरों पर पड़ा है उसका दिग्दर्शन करने के पहिले दूसरे सम्प्रदायों के आचार-विचार का जैन मार्ग पर जो असर पड़ा है उसे संक्षेप में बतलाना ठीक होगा जिससे कि जैन संस्कृति काहार्द सरलता से समझा जा सके । अन्य संप्रदायों का जैन संस्कृति पर प्रभाव इंद्र, वरुण आदि स्वर्गीय देव देवियों की स्तुति, उपासना के स्थान में जैनों का आदर्श है निष्कलंक मनुष्य की Jain Education International उपासना पर जैन आचार-विचार में बहिष्कृत देव देवियाँ, पुनः गौण रूप से ही सही, स्तुति प्रार्थना द्वारा घुस ही गईं, जिसका जैन संस्कृति के उद्देश्य के साथ कोई भी मेल नहीं है । जैन परंपरा ने उपासना में प्रतीक रूप से मनुष्य मूर्ति को स्थान तो दिया, जो कि उसके उद्देश्य के साथ संगत है पर साथ ही उसके आस-पास शृंगार व आडम्बर का इतना संभार आ गया जो कि निवृत्ति के लक्ष्य के साथ बिलकुल असंगत है । स्त्री और शूद्र को आध्यात्मिक समानता के नाते ऊँचा उठाने का तथा समाज में सम्मान व स्थान दिलाने का जो जैन संस्कृति का उद्देश्य रहा वह यहाँ तक लुप्त हो गया कि न केवल उसने शूद्रों को अपनाने की क्रिया ही बन्द कर दी बल्कि उसने ब्राह्मण-धर्म- प्रसिद्ध जाति की दीवारें खड़ी कीं । यहाँ तक कि जहाँ ब्राह्मण-परंपरा का प्राधान्य रहा वहां तो उसने अपने घेरे में से भी शूद्र कहलाने वाले लोगों को अजैन कहकर बाहर कर दिया और शुरू में जैन संस्कृति जिस जातिभेद का विरोध करने में गौरव समझती थी उसने दक्षिण जैसे देशों में नये जाति-भेद की सृष्टि कर दी तथा स्त्रियों को पूर्ण आध्यात्मिक योग्यता के लिये असमर्थ करार दिया जो कि स्पष्टतः कट्टर ब्राह्मण-परंपरा का ही असर है । मन्त्र-तन्त्र, ज्योतिष आदि विद्याएँ जिनका जैन संस्कृति के ध्येय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं वे भी जैन संस्कृति में आई। इतना ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक जीवन स्वीकार करने वाले अनगारों तक ने उन विद्याओं को अपनाया। जिन यज्ञोपवीत आदि संस्कारों का मूल में जैन संस्कृति के साथ कोई सम्बन्ध न था वे ही दक्षिण हिन्दुस्तान में मध्यकाल में जैन संस्कृति का एक अंग बन गये और इसके लिये ब्राह्मण-परंपरा की तरह जैन-परंपरा में भी एक पुरोहित वर्ग क़ायम हो गया । यज्ञयागादि की ठीक नक़ल करने वाले क्रियाकाण्ड प्रतिष्ठा आदि विधियों में आ गये। ये तथा ऐसी दूसरी अनेक छोटी-मोटी बातें इसलिये घटी कि जैन संस्कृति को उन साधारण अनुयायियों की रक्षा करनी थी जो कि दूसरे विरोधी सम्प्रदायों में से आकर उसमें शरीक होते थे, या दूसरे सम्प्रदायों के आचार-विचारों से अपने को बचा न सकते थे। अब हम थोड़े में यह भी देखेंगे कि जैन संस्कृति का दूसरों पर क्या खास असर पड़ा है । जैन संस्कृति का प्रभाव यों तो सिद्धांततः सर्वभूतदया को सभी मानते हैं पर प्राणिरक्षा के ऊपर जितना जोर जैन परंपरा ने दिया, जितनी लगन से उसने इस विषय में काम किया उसका नतीजा सारे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012073
Book TitleShantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherSohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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