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________________ ऐतिहासिक युग में यह रहा है कि जहाँ-तहाँ और जब जब कट्टर विरोधी सम्प्रदायों को भी कुछ-न-कुछ प्रेरणा मिलती जैन लोगों का एक या दूसरे क्षेत्र में प्रभाव रहा सर्वत्र आम ही रही है। रामानुज का विशिष्टाद्वैत उपनिषद् की भूमिका जनता का प्राणिरक्षा का प्रबल संस्कार पड़ा है। यहाँ तक के ऊपर अनेकान्तवाद ही तो है। कि भारत के अनेक भागों में अपने को अजैन कहने वाले तथा । जैन-विरोधी समझने वाले साधारण लोग जीव-मात्र की जन-परपरा क आदशहिंसा से नफरत करने लगे हैं। अहिंसा के इस सामान्य जैन-संस्कृति के हृदय को समझने के लिये हमें थोड़े से संस्कार के ही कारण अनेक वैष्णव आदि जैनेतर परंपराओं उन आदर्शों का परिचय करना होगा जो पहिले से आज तक के आचार-विचार पुरानी वैदिक परम्परा से बिलकुल जुदा जैन-परम्परा में एक समान मान्य हैं और पूजे जाते हैं। सबसे हो गए हैं । तपस्या के बारे में भी ऐसा ही हुआ है। त्यागी हो पुराना आदर्श जैन-परम्परा के सामने ऋषभदेव और उनके या गृहस्थ सभी जैन तपस्या के ऊपर अधिकाधिक झुकते रहे परिवार का है। ऋषभदेव ने अपने जीवन का बहुत बड़ा भाग हैं । इसका फल पड़ोसी समाजों पर इतना अधिक पड़ा है कि उन जवाबदेहियों का बुद्धिपूर्वक अदा करने में बिताया जो उन्होंने भी एक या दूसरे रूप से अनेक विधि सात्विक तप- प्रजापालन की जिम्मेवारी के साथ उन पर आ पड़ी थीं। स्याएँ अपना ली हैं। और सामान्य रूप से साधारण जनता उन्होंने उस समय के बिल्कुल अपढ़ लोगों को लिखना-पढ़ना जैनों की तपस्या की ओर आदरशील रही है । यहाँ तक कि सिखाया, कुछ काम-धन्धा न जानने वाले वनचरों को उन्होंने अनेक बार मुसलमान सम्राट् तथा दूसरे समर्थ अधिकारियों खेती-बाड़ी तथा बढ़ई, कुम्हार आदि के जीवनोपयोगी धन्धे ने तपस्या से आकृष्ट होकर जैन-सम्प्रदाय का बहुमान ही सिखाए, आपस में कैसे बरतना, कैसे समाज-नियमों का पालन नहीं किया है बल्कि उसे अनेक सुविधाएँ भी दी हैं, मद्यमांस करना यह भी सिखाया। जब उनको महसूस हुआ कि अब आदि सात व्यसनों को रोकने के तथा उन्हें घटाने के लिए बड़ा पुत्र भरत प्रजाशासन की सब जबाबदेहियों को निवाह जैन-वर्ग ने इतना अधिक प्रयत्न किया है कि जिससे वह लेगा तब उसे राज्य-भार सौंपकर गहरे अध्यात्मिक प्रश्नों की व्यसनसेवी अनेक जातियों में सुसंस्कार डालने में समर्थ हआ छानबीन के लिये उत्कट तपस्वी होकर घर से निकल पड़े। है। यद्यपि बौद्ध आदि दूसरे सम्प्रदाय पूरे बल से इस ऋषभदेवकी दो पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुन्दरी नाम की थीं। सुसंस्कार के लिए प्रयत्न करते रहे पर जैनों का प्रयत्न इस उस जमाने में भाई-बहन के बीच शादी की प्रथा प्रचलित थी। दिशा में आज तक जारी है और जहां जैनों का प्रभाव ठीक सुन्दरी ने इस प्रथा का विरोध करके अपनी सौम्य तपस्या से ठीक है वहाँ इस स्वैरविहार के स्वतन्त्र युग में भी मुसलमान भाई भरत पर ऐसा प्रभाव डाला कि जिससे भरत ने न केवल और दूसरे मांसभक्षी लोग भी खुल्लमखुल्ला मांस-मद्य का सुंदरी के साथ विवाह करने का विचार ही छोड़ा बल्कि वह उपयोग करने में संकुचाते हैं। लोकमान्य तिलक ने ठीक ही उसका भक्त बन गया । ऋग्वेद के यमीसूक्त में भाई यम ने कहा था कि, गुजरात आदि प्रान्तों में जो प्राणि-रक्षा और भगिनी यमी की लग्न-माँग को अस्वीकार किया जब कि निर्मास भोजन का आग्रह है वह जैन-परंपरा का ही प्रभाव है। भगिनी सुन्दरी ने भाई भरत की लग्न-माँग को तपस्या में जैन-विचारसरणी का एक मौलिक सिद्धांत यह है कि, प्रत्येक परिणत कर दिया और फलतः भाई-बहिन के लग्न की प्रतिवस्तु का विचारविनिमय अधिकाधिक पहलुओं और अधिका- ष्ठित प्रथा नाम-शेष हो गई। धिक दृष्टिकोणों से करना और विवादास्पद विषय में बिल- ऋषभ के भरत और बाहुबली नामक पुत्रों में राज्य के कुल अपने विरोधी पक्ष के अभिप्राय को भी उतना ही सहानु- निमित्त भयानक युद्ध शुरू हुआ। अन्त में द्वन्द्व-युद्ध का फैसला भूति अपने पक्ष की ओर हो, और अन्त में समन्वय पर ही हआ। भरत का प्रचण्ड प्रहार निष्फल गया। जब बाहुबली जीवन-व्यवहार का फैसला करना । यों तो यह सिद्धान्त सभी की बारी आई और समर्थतर बाहुबली को जान पड़ा कि मेरे विचारकों के जीवन में एक या दूसरे रूप से काम करता ही मुष्टि-प्रहार से भरत की अवश्य दुर्दशा होगी तब उसने उस रहता है। इसके सिवाय प्रजाजीवन न तो व्यवस्थित बन भ्रातृविजयाभिमुख क्षण को आत्मविजय में बदल दिया। सकता है और न शान्तिलाभ कर सकता है। पर जैन उसने यह सोचकर कि राज्य के निमित्त लड़ाई में विजय पाने विचारकों ने उस सिद्धांत की इतनी अधिक चर्चा की है और और वैर-प्रतिवैर तथा कुटुम्ब-कलह के बीज बोने की अपेक्षा उस पर इतना अधिक जोर दिया है कि जिससे कट्टर-से- सच्ची विजय अहंकार और तृष्णा-जय में ही है। उसने अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012073
Book TitleShantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherSohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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