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________________ आधारभूत मन्तव्यों और शास्त्रों को आश्रय नहीं दिया। दीर्घ- खास ढंग से विकास करता जा रहा था। उसी सम्प्रदाय में तपस्वी महावीर भी ऐसे ही कट्टर निवर्तक-धर्मी थे । अत- पहिले नाभिनन्दन ऋषभदेव, यदुनन्दन नेमिनाथ और काशीएव हम देखते हैं कि पहिले से आज तक जैन और बौद्ध राजपुत्र पार्श्वनाथ हो चुके थे, या वे उस सम्प्रदाय के मान्य सम्प्रदाय में अनेक वेदानुयायी विद्वान ब्राह्मण दीक्षित हुए फिर पुरुष बन चुके थे। उस सम्प्रदाय के समय-समय पर अनेक भी उन्होंने जैन और बौद्ध वाङ्मय में वेद के प्रामाण्य-स्थापन नाम प्रसिद्ध रहे । यति, भिक्ष, मुनि, अनगार, श्रमण आदि का न कोई प्रयत्न किया और न किसी ब्राह्मणग्रन्थ-विहित जैसे नाम तो उस सम्प्रदाय के लिए व्यवहृत होते थे पर जब यज्ञयागादि कर्मकाण्ड को मान्य रक्खा । दीर्घ-तपस्वी महावीर उस सम्प्रदाय के मुखिया बने तब सम्भवतःवह सम्प्रदाय 'निर्ग्रन्थ' नाम से विशेष प्रसिद्ध हुआ। निवर्तक-धर्म के मन्तव्य और आचार यद्यपि निवर्तक-धर्मानुयायी पन्थों में ऊँची आध्यात्मिक शताब्दियों ही नहीं बल्कि सहस्राब्दि पहिले से लेकर जो भूमिका पर पहुँचे हुए व्यक्ति के वास्ते 'जिन' शब्द साधारण धीरे-धीरे निवर्तक धर्म के अंग-प्रत्यंग रूप से अनेक मन्तव्यों रूप से प्रयुक्त होता था। फिर भी भगवान महावीर के समय और आचारों का महावीर-बुद्ध तक के समय में विकास हो में और उनके कुछ समय बाद तक भी महावीर का अनुयायी चका था वे संक्षेप में ये हैं साधु या गृहस्थ वर्ग 'जैन' (जिनानुयायी) नाम से व्यवहृत १ आत्मशुद्धि ही जीवन का मुख्य उद्देश्य है, न कि ऐहिक नहीं होता था। आज जैन शब्द से महावीर पोषित सम्प्रदाय या परलौकिक किसी भी पद का महत्त्व । के 'त्यागी' और 'गृहस्थ' सभी अनुयायियों का जो बोध होता २-इस उद्देश्य की पूर्ति में बाधक आध्यात्मिक मोह, है इसके लिए पहले 'निग्गंथ' और 'समणोवासग' आदि जैन अविद्या और तज्जन्य तृष्णा का मूलोच्छेद करना। शब्द व्यवहृत होते थे। ३-इसके लिए आध्यात्मिक ज्ञान और उसके द्वारा सारे जीवन व्यवहार को पूर्ण निस्तष्ण बनाना। इसके वास्ते जन और बौद्ध सम्प्रदायशारीरिक, मानसिक, वाचिक, विविध तपस्याओं का तथा इस निर्ग्रन्थ या जैन सम्प्रदाय में ऊपर सूचित निवृत्तिनाना प्रकार के ध्यान, योग-मार्ग का अनुसरण और तीन चार धर्म के सब लक्षण बहुधा थे ही पर इसमें ऋषभ आदि पूर्वपाँच महाव्रतों का यावज्जीवन अनुष्ठान । कालीन त्यागी महापुरुषों के द्वारा तथा अन्त में ज्ञातपुत्र ४--किसी भी आध्यात्मिक अनुभव वाले मनुष्य के द्वारा महावीर के द्वारा विचार और आचारगत ऐसी छोटी-बड़ी किसी भी भाषा में कहे गये आध्यात्मिक वर्णनवाले वचनों को अनेक विशेषताएँ आई थीं व स्थिर हो गई थी कि जिनसे ही प्रमाण रूप से मानना, न कि ईश्वरीय या अपौरुषेय रूप ज्ञातपूत्र-महावीरपोषित यह सम्प्रदाय दूसरे निवृत्तिगामी से स्वीकृत किसी खास भाषा में रचित ग्रन्थों को। सम्प्रदायों में खास जुदारूप धारण किए हुए था। यहाँ तक ५-योग्यता और गुरुपद की कसौटी एक मात्र जीवन कि यह जैन सम्प्रदाय बौद्ध सम्प्रदाय से भी खास फर्क रखता की आध्यात्मिक शुद्धि, न कि जन्मसिद्ध वर्ण-विशेष। इस दृष्टि था। महावीर और बुद्ध न केवल समकालीन ही थे बल्कि वे से स्त्री और शूद्र तक का धर्माधिकार उतना ही है जितना एक बहुधा एक ही प्रदेश में विचरने वाले तथा समान और समब्राह्मण और क्षत्रिय पुरुष का। कक्ष अनुयायियों को एक हीभाषा में उपदेश करते थे। दोनों ६-मद्य-मांस आदि का धार्मिक और सामाजिक जीवन के मख्य उद्देश्य में कोई अन्तर नहीं था फिर भी महावीरमें निषेध । ये तथा इनके जैसे लक्षण जो प्रवर्तक-धर्म के पोषित और बुद्धसंचालित सम्प्रदायों में शुरू से ही खास आचारों और विचारों से जुदा पड़ते थे वे देश में जड़ जमा अन्तर रहा, जो ज्ञातव्य है। बौद्ध सम्प्रदाय बुद्ध को ही आदर्श चके थे और दिन-ब-दिन विशेष बल पकड़ते जाते थे। रूप में पूजता है तथा बुद्ध के ही उपदेशों का आदर करता है जबकि जैन सम्प्रदाय महावीर आदि को इष्ट देव मानकर निर्गन्थ-सम्प्रदाय उन्हीं के वचनों को मान्य रखता है । बौद्ध चित्तशुद्धि के लिये कमोवेश उक्त लक्षणों को धारण करनेवाली अनेक ध्यान और मानसिक संयम पर जितना जोर देते हैं उतना संस्थाओं और सम्प्रदायों में एक ऐसा पुराना निवर्तक-धर्मी जोर बाह्य तप और देहदमन पर नहीं। जैन ध्यान और मानसम्प्रदाय था जो महावीर के पहिले बहुत शताब्दियों से अपने सिक संयम के अलावा देहदमन पर भी अधिक जोर देते रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012073
Book TitleShantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherSohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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