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________________ आगम संबंधी लेख चौबीस घण्टे उपार्जन कर रहे है जिससे हिंसा प्रवृत्ति फैल रही है। ऐसे राग से हिंसा होती है । श्री अमृतचंद्राचार्य ने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ग्रन्थ में इसी बात को पुष्ट किया “अप्रादुर्भावः खलुः रागादीनां भवत्य हिंसेति । तेषामेवोत्पत्ति, हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥” रागादि भावों का प्रगट न होना अहिंसा है, रागादि भावों की उत्पत्ति का होना हिंसा कहा गया है। यही जिनागम का संक्षिप्त रहस्य है । आचार्यश्री ने प्रश्न किया कि खुद के रागादिभावों को हिंसा क्यों माना, पर का घात करने को हिंसा कहना चाहिये उसका समाधान है कि राग की तीव्रता के कारण शरीर को ही अपना मान रहा है एवं धन दौलत को भी अपना मान रहा है। अपने स्वरूप को भूल रहा है। इसी मान्यता का नाम मिथ्यात्व है । इसी बात को छहढाला में कहा है : तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान रागादिप्रगट ये दुःखदैन, तिनही को सेवत गिनत चैन । Jain Education International साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ शरीर के उत्पन्न होने को अपनी उपज जान रहा है । और शरीर के नाश को अपना मरण मान रहा है। जबकि शरीर में विराजमान आत्मा अनादिनिधन है। जन्म मरण से रहित है उसको भूल रहा है रागादिक दुःखों को देने वाले है। स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है परन्तु रागादिक को करके अपने को सुख चैन मान रहा है । इसी का नाम मिथ्यात्व है एवं स्व आत्मा का घात है इससे महान हिंसा है। मिथ्यात्व के साथ अनंतानुबंधी कषाय का अविनाभावी संबंध है। जो इस जीव को अनंतानुबंधी कर्मो का बंधन कराती रहती है और अनंतकाल तक संसार में भ्रमण कराती रहती है। अनंत दुखों को भोगना पड़ता है। इससे आत्मा के निज स्वभाव का घात होता रहता है। इससे इस जीव को "मोक्ष" नहीं होता है। इससे खुद का राग ही महा हिंसा का कारण होता है पर का घात करना हिंसा सबने ही माना है। उसका निषेध नहीं किया है। आचार्य श्री की दृष्टि निज के राग के ऊपर गई जिसने निज के राग को छोड़ दिया है। उसका पर का राग अपने आप ही छूट जाता है। इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। जैसे - मारीच को अपनी प्रसिद्धी करने का महान राग पैदा हो गया था जिससे पितामह श्री " ऋषभदेव" की अहिंसा एवं संयम की अवहेलना करने से मिथ्यात्व का तीव्र उदय आ गया | मनमाने 363 मतों की स्थापना कर दी, जिससे अपने ही गुणों का घात किया जिसका "फल" क्या हुआ । श्री आदिनाथ से लेकर 23 वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ पर्यन्त 42 हजार वर्ष कम 1 कोड़ा सागर तक संसार में नरक गति तिर्यंचगति, पशुगति, वृक्षों की योनियों में जन्म मरण के अनंत दुखों को भोगता रहा। खुद के राग के कारण अपने स्वरूप का घात करता रहा है। यही महान हिंसा करता रहा । 631 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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