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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ औद्योगिक पद्धति द्वारा प्रस्तुत की गई जटिल समस्याओं को सुलझाने में अधिक कार्यकारी सिद्ध प्रणाली है। इस प्रकार अनेकांतात्मक स्याद्वाद वस्तु के स्वरूप का वास्तविक कथन करने में ऐसी सिद्ध हस्त परम्परा है जो संकीर्णता के घेरे से हटकर व्यापकता की विशाल परिधि में प्रवेश कराने में अप्रतिम रूप से समर्थ है। यदि विश्व के मत मतान्तर अपनी संकुचित एकांगी विचारधाराओं को उदार बनाकर अनेकांत और स्याद्वाद की निष्पक्ष और उदार दृष्टि को अपना लें तो साम्प्रदायिकता जन्य विद्वेषों और अनावश्यक विवादों के अंत होने में देर न लगे । विश्वशांति के लिए यह अनिवार्य भी है तथा इसकी महती आवश्यकता है । इस सिद्धांत के प्रतिपादन में सम्यग्दर्शन की महती आवश्यकता प्रतिपादित करते हुए श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है - _ "देवाधिदेव चरणे, परिचरणं सर्व दु:ख निर्हरणम् । ___ काम दुहि काम दाहिनी, परिचिनुया दादृतो नित्यम् ॥" अर्थात् देवाधिदेव (अरिहंत देव) के चरणों की सेवा सम्पूर्ण दुःखों का विनाश करने वाली है । यह मनोवांक्षित फलों को प्रदान करती है। विषय वासनाओं को भस्म कर देती है। सबसे पहले भगवत वाणी से ही देशनालब्धि को प्राप्त जीव ही अपनी चिरकालीन मोहनिद्रा को भंग कर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में स्वयं सक्षम हो जाता है। निस्पृह होकर वीतराग की आराधना ही अनेकांतवाद जन्य विशुद्धि की पर्यायवाची है। आचार्य वादीभ सिंह सूरि ने अपने क्षत्र चूड़ामणि काव्य में कहा - "अनेकांती जिन भक्ति: मुक्तयै, क्षुद्रं किं वा न साधयेत् ? " अर्थात् अनेकांतमयी जिनेन्द्र भक्ति जबकि मुक्ति का साधन है तो क्षुद्र कार्यों की सिद्धि उसके द्वारा क्यों न होगी ? अवश्य होगी। अंत में पू. ज्ञानसागर जी महाराज का जयोदय काव्य में अनेकांतवाद विषयक कथन दृष्टव्य है - "वीरो दिते समुदितै रिति संवदम । कल्य प्रभाववशत: प्रतिबोधनाम्॥ कल्य प्रभाववशत: प्रति बोधनाम् । संप्रापितं च मनु जैश्चतुराश्रमित्व॥" अर्थात् भगवान महावीर के द्वारा समर्पित मत अनेकांतवाद में समुदित - संगठित हुए मनुष्य ने कलिकाल से प्रभावित न होकर, प्रबोध (ज्ञान) को प्राप्त किया । अर्थात् चारों आश्रमों - ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ, और ऋषित्व को प्राप्त कर एकांतवाद को छोड़कर स्वानुभव किया । 628 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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