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________________ शुभाशीष/श्रद्धांजलि साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ समर्पण में सागर की समाज भी ज्ञान गंगा में निरंतर अवगाहन करती रही। वे एक दृष्टि से समाज के संस्कार निर्माता ही रहे। उनके बारे में यो कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्होंने समाज से भौतिक भोजन लिया और उसे अनेक गुणा करके ज्ञानामृत के रूप में लौटाया। समाज कभी उनके ऋण से उऋण नही हो सकता। ऐसे ज्ञानी त्यागी सेवाभावी समर्पित व्यक्तित्व का देह निधन भले ही हो गया हो पर उनके कार्य सदैव उन्हें जीवित रखेंगे। वे देह से हमारे बीच नहीं है पर उनके द्वारा रोपे गये संस्कार शिक्षा के बीज हर हृदय में हरियाते रहेंगे । उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित कर मैं स्वयं को धन्य मानता हूँ। सरल हृदय पंडित जी रतनलाल बैनाड़ा प्रोफेसर कालोनी, आगरा पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य अत्यंत सरल हृदय विद्वान थे । मेरा उनका सर्वप्रथम परिचय तब हुआ जब वे पर्वृषण पर्व के अवसर पर प्रवचन हेतु, दोबार आगरा पधारे थे। उनके प्रवचनों को आगरा समाज ने बहुत पसंद किया था। इसका कारण यह था कि वे सरल भाषा में प्रवचन देते थे। तत्त्वार्थ सूत्र का अर्थ भी इस प्रकार समझाते थे, जो सभी महिला पुरुषों को सहज ही गले उतर जाता था। प्रश्नों के उत्तर देने में वे कभी झुंझलाते नहीं थे एक बार तो प्रथम अध्याय के एक सूत्र पर इतने प्रश्नोत्तर हुए कि पूरा समय उसी में निकल गया । परन्तु उनको तनिक भी गुस्सा या झुंझलाहट नहीं आई थी। वे हमेशा अपने लिए कुछ भी नहीं चाहते थे। पर्व के अंत में जब कुछ देने की बात उठती थी तो हमेशा यही कहते थे मुझे कुछ नहीं चाहिए जो भी देना हो , संस्था के नाम का ड्राफ्ट बनवा दो। हमारे ट्रस्ट से छात्रों को छात्रवृत्ति दी जाती थी। सागर से 20-30 छात्रों के प्रतिवर्ष पत्र आते थे कि हमको इतने रुपये प्रतिमाह की छात्रवृत्ति दी जाये । मैं उन पत्रों को पंडित जी के पास भेजता था कि यथार्थ में कितनी छात्रवृत्ति दी जानी चाहिए। पंडित जी साहब, छात्रों द्वारा लिखी गई राशि को बदलकर, सही राशि लिख भेजते थे। जो राशि, वांछित राशि से बहुत कम होती थी। उनका लक्ष्य था कि यदि अधिक छात्रवृत्ति दे दी जायेगी तो छात्र बिगड़ जायेगा, गलत शौक लग जायेंगे। अत: केवल आवश्यक राशि ही दें।यदि कोई छात्र अन्य स्थान से भी छात्रवृत्ति ले रहा होता था तो वे स्पष्ट रूप से इन्कार कर देते थे। ऐसे निर्लोभी, भोले भाले व्यक्तित्व के धनी पंडितों का वर्तमान में तो अभाव सा लगता है। मैं उनको श्रद्धापूर्वक नमन करता हूँ। - 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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