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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ केरल में जैन स्थापत्य और कला सुरेशचंद जैन बारौलिया, आगरा यह सहसा विश्वास नहीं होता कि केरल में भी जैन स्थापत्य और कला संबंधी कोई सामग्री हो सकती है। सामग्री तो है किंतु वह एक तो अल्प है और कुछ मतभेद के घेरे में है। इस विषय पर लिखना वास्तव में एक कठिन कार्य है फिर भी कारणों और इस विषय पर लेखक की धारणा का औचित्य बताते हुए यथासंभव युक्तिसंगत विवरण देने का प्रयत्न किया जायेगा। सबसे पहला कारण तो यह धारणा है कि केरल में जैनधर्म का प्रादुर्भाव अधिक से अधिक भद्रबाहु और चंद्रगुप्त मौर्य के दक्षिण भारत में आगमन के साथ हुआ होगा । एक तो यह धारणा ही उचित नहीं है कि इन मुनियों से पहले दक्षिण भारत में जैनधर्म का अस्तित्व नही था। जो दिगंबर जैन मुनियों की चर्या से परिचित है वे यह भलीभाँति समझ सकते हैं कि 46 दोषों से रहित आहार ग्रहण करने वाले मुनि ऐसे प्रदेश में विहार नहीं कर सकते हैं जहां विधिपूर्वक उन्हें आहार देने वाले गृहस्थ निवास न करते हों। फिर केवल दोनों हाथों की अंजुली को ही पात्र बनाकर दिन में केवल एक ही बार आहार ग्रहण करने वाले बारह हजार मुनियों के आहार के लिए जैनियों की बहुत बड़ी संख्या की विद्यमानता का आकलन उन मुनियों के नायक भद्रबाहु और चंद्रगुप्त मौर्य ने अवश्य ही कर लिया होगा। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में इन मुनियों का विहार केवल तमिलनाडु और कर्नाटक में ही हुआ था और केरल में वे नहीं पहुंचे थे, यह विचार ही उचित नहीं जान पड़ता। उस समय तो केरल तमिलनाडु का ही एक भाग था और उसका स्वतंत्र अस्तित्व तो आठवीं शताब्दी की बात है। मलयालम भाषा में लिखित केरल के विशालकाय इतिहास ग्रंथ केरल चरित्रम में यह स्वीकार किया गया है कि ब्राह्मी शिलालेखों के आधार पर यह स्पष्ट है कि केरल में जैनधर्म का प्रादुर्भाव ईसा पूर्व की दूसरी सदी में हो चुका था। अत: इससे पूर्व भी केरल में जैन धर्म का अस्तित्व मानना अनुचित नहीं जान पड़ता। जैन पुराण इस बात का कथन करते हैं कि श्री कृष्ण के चचेरे भाई और जैनों के 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ ने जिन्होंने गिरनार पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया था, पल्लव देश को भी अपने धर्मोपदेश का क्षेत्र बनाया था। उनकी मूर्तियाँ और उनका उल्लेख करते हुए शिलालेख तमिलनाडु में अधिक संख्या में पाये गये हैं। वे उनकी लोकप्रियता का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। इसके अतिरिक्त, श्रीलंका में एक पर्वत का नाम भी उनके नाम पर अरिट्टपव्वत था। प्रश्न हो सकता है कि नेमीनाथ का विहार श्रीलंका में कैसे हुआ होगा? बीच में तो समुद्र है। केरल में यह अनुश्रुत है कि केरल की बहुत सी धरती समुद्र निगल गया | कन्याकुमारी घाट से देखने पर अनेक चट्टानें समुद्र में से अपनी गर्दन बाहर निकालती आज भी दिखाई देती है जो इस बात का संकेत देती है कि केरल किसी समय श्रीलंका से जुड़ा हुआ था। अरिष्टनेमि और अन्य जैन मुनि इसी रास्ते श्रीलंका आते-जाते रहे होंगे । केरल का एक संपूर्ण गांव ही यादववंशी है और वह जैनधर्म का अनुयायी रहा है। पार्श्वनाथ (निर्वाण ईसा से ७७७ वर्ष पूर्व) की ऐतिहासिकता स्वीकार कर ली गई है और उनके प्रभाव को केरल में नागपूजा, पार्श्व मूर्तियों का पाया जाना, पद्मावती के मंदिरों जो कि अब भगवती 586 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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