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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आराधना निष्फल हो जाती है। उत्तम, मध्यम और जघन्य के रूप में आराधना का स्वामित्व माना गया है। आराधना के अंतर्गत तप : भगवती आराधना में तप का उल्लेख अंतिम आराधना के रूप में किया गया है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और तप ये, चार आराधनायें विस्तार से कहीं गयीं हैं । जिनागम के उल्लेखपूर्वक संक्षिप्त श्रद्धानविषयक और चारित्रविषयक, दो आराधनायें बतायीं गयीं हैं। ग्रन्थकार ने दर्शनाराधना में ज्ञानाराधना का एवं चारित्राराधना में तपाराधना का अंतर्भाव किया है क्योंकि दर्शन का ज्ञान के साथ तथा चारित्र का तप के साथ अविनाभाव है अर्थात् दर्शन और चारित्र होने पर क्रमश: ज्ञान और तप नियम से होते हैं, ज्ञान तथा तप होने पर दर्शन और चारित्र हो भी सकते हैं, नहीं भी हो सकते हैं। ज्ञान का दर्शन के साथ अविनाभाव सम्बंध नहीं है। ज्ञान शब्द सामान्यवाची होने से उसके संशय, विपर्यय, अनध्वसाय आदि प्रयोग देखे जाते हैं। ज्ञानरूप परिणमन करने वाला आत्मा नियम से तत्त्व श्रद्धान रूप से परिणमन करता ही हो, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि जो आत्मा मिथ्याज्ञान रूप से परिणमन करता है, उसके तत्त्वश्रद्धा का अभाव होता है। जिसकी जिस विषय में श्रद्धा होती है उसका उस विषय में अज्ञान होने पर किसी भी तरह वह श्रद्धा नहीं होती। रूचि, विषय के बिना नहीं होती। बुद्धि के द्वारा ग्रहण की गयी वस्तु में श्रद्धा होती है। अत: श्रद्धा का ज्ञान के साथ अविनाभाव है। श्रद्धान चैतन्य का धर्म है, ज्ञान का नहीं। यदि उसे ज्ञान का धर्म माना जायेगा तो क्षयोपशमिक ज्ञान के नष्ट होने पर दर्शन कैसे रह सकेगा। धर्मों के नष्ट होने पर धर्म नहीं होता। चारित्राराधना और तप : ग्रन्थकार ने तप का चारित्राराधना में अंतर्भाव किया है । टीकाकार ने यहाँ संयम का अर्थ चारित्र किया है। क्योंकि कर्मों के ग्रहण में निमित्त क्रियाओं के त्याग को संयम कहते हैं, इसलिए वह चारित्र है। बाह्य अनशन आदि और आभ्यन्तर प्रायश्चित आदि के भेद से चारित्र बारह प्रकार का है । तप आराधना में अविरति, प्रमाद एवं कषाय का त्याग होता है। इसलिए तपाराधना का चारित्राराधना में अंतर्भाव किया गया है, परतु तपाराधना में चारित्राराधना नहीं आती क्योंकि तपस्वी असंयम का त्यागी होता भी है और नहीं भी होता। भोजनादि का त्याग करने वाले भी कई असंयमी देखे जाते हैं। जो सुख का त्याग करता है, वह चारित्र को धारण करता है। चारित्र में उद्यम करना बाह्य तप है और यह चारित्र की सहायक सामग्री है। चारित्र रूप परिणाम अंतरंग तप हैं। अंतरंग तप के भेद प्रायश्चित आदि पाप प्रवृत्तियों को दूर करते हैं। इसलिए तप चारित्र से भिन्न नहीं है । अवगत हो कि तप के साथ अन्य सभी आराधनाएँ भी चारित्र की आराधना में आराधित हैं। इस कारण यह माना गया है कि असंयत सम्यग्दृष्टि ज्ञान और दर्शन का ही आराधक होता है, चारित्र और तप का नहीं। मिथ्यादृष्टि अनशन आदि में तत्पर रहते हुए भी चारित्र की आराधना नहीं करता। अन्य आराधनाओं के साथ चारित्र की आराधना का अविनाभाव नहीं है ताप्पर्य यह कि चारित्राराधना के बिना भी अन्य आराधनायें होती है। (580 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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