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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ चारित्रमोहनीय कर्म के अधीन रहने वाला जीव संयम, तप, स्वाध्याय आदि पूर्व यथाक्रम से इन कर्मों के उदय को समाप्त कर इनसे क्षायोपशमिक स्थिति में पहुँचकर मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो सकता है। मोहनीय कर्म के उदय से उनके क्षयोपशम रूप यथाक्रम विकाश को प्राप्त न होने पर मिथ्यादृष्टि जीव अणुव्रतों, महाव्रतों, तप आदि का पालन करता हुआ भी मोहनीय कर्म के मंदोदय और पुण्यकर्मों के तीव्रोदय के आधार पर उसकी प्रवृत्ति सांसारिक अभ्युदय की प्राप्ति के लिए ही हुआ करती है। सल्लेखना : ज्ञानी और अज्ञानी का तप : काय और कषाय का कृश करना सल्लेखना है। सल्लेखना व्रत है, जो मरण से पूर्व मरण तक लिया जाता है । मारणान्तिक सल्लेखना भी इसे कहते हैं। श्रावक और श्रमण दोनों इसको ले सकते है । भगवती आराधना की गाथा संख्या 274 में सल्लेखना करने वाले के दो भेद बताये गये हैं - 1. आचार्य और 2. साधु। उपसर्ग, दुर्भिक्ष, अतिवृद्ध, असाध्यरोग आदि होने पर साधक साम्यभावपूर्वक अंतरंग कषायों का सम्यक् रूप से दमन करते हुए क्रमश: भोजन आदि का त्याग करके शरीर को धीरे - धीरे कृश करते हुए जब उसे त्याग देता है, तब उसे सल्लेखना या समाधिमरण कहते हैं। अभ्यन्तर और बाह्य के रूप में सल्लेखना के दो भेद होते हैं। अभ्यन्तर सल्लेखना क्रोधादि कषायों की होती है। जिसका चित्त कषाय से दूषित होता है, उसके परिणाम विशुद्धि नहीं होती। परिणामविशुद्धि को कषाय सल्लेखना भी कहा गया है। परिणामों की विशुद्धि छोड़कर ज्ञानी या अज्ञानी उत्कृष्ट भी तप करें तब भी उनके अशुभ कर्म के आस्रव से रहित शुद्धि नहीं होती । विशुद्ध परिणाम वाला शुक्ल लेश्या से युक्त उत्कृष्ट तप नहीं भी करे, तब भी वह केवल शुद्धि को प्राप्त करता है। बाह्य सल्लेखना शरीर के विषय में होती है। इसमें बल को बढ़ाने वाले भोजन रस आदि को क्रम से त्यागते हुए शरीर को कृश किया जाता है। साधक का सभी तपों से उत्कृष्ट तप तब होता है, जब अभ्यन्तर सल्लेखना पूर्वक बाह्य सल्लेखना करते हुए संसार के त्याग का दृढ़ निश्चय करता है। गुणभेद की अपेक्षा मरण : ___ आचार्य शिवार्य ने जिनागम का उल्लेख करते हुए मरण के सत्रह भेदों का उल्लेख किया है, जिनमें गुण भेद की अपेक्षा जीवों के पाँच भेद करके उनके संबंध से मरण के पाँच भेद - पण्डितपण्डितमरण पण्डितमरण, बाल पण्डित मरण, बाल मरण और बाल बाल मरण बताये है। क्षीणकषाय और अयोग केवली पण्डित पण्डित मरण से मरते हैं । शास्त्रानुसार आचरण करने वाले साधु के पण्डित मरण के उपभेद - पादोपगमन, भक्तप्रतिज्ञा और इंगिनी ये तीन मरण होते हैं। विरताविरत जीवों का बालपण्डित मरण होता है। अविरत सम्यग्दृष्टि चतुर्थ बालमरण से मरते हैं और बालबाल मरण, मिथ्यादृष्टि जीवों का होता है। ज्ञात हो कि उपर्युक्त मरण आराधना पूर्वक होने वाले मरण के विषय में बताये गये है। यथार्थ मरण के लिए आराधना आवश्यक : __ सल्लेखना पूर्वक मरण के लिए ग्रन्थकार ने आराधना को आवश्यक माना है। जीवनभर की गयी आराधना यदि मरण के समय यथावत् बनी रहे, तभी उसकी सार्थकता है अन्यथा उसकी सम्पूर्ण जीवन की -579 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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