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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ संभावना रहती है। इसका उत्तर समाज के पास होता है कि ये मुनि/आर्यिका अपने साथ तो नहीं ले जायेंगे। रहेगी तो अपने पास, अपने लोगों के ही कार्य आयेगी। इनके निमित्त से बाहर का रुपया हमारे गृह स्थान या तीर्थ स्थान पर लग रहा है। इसी लोभ, कषायवश स्थानीय समाज साधु/साध्वी /त्यागी व्रती का पूर्ण बढ़ चढ़ कर सहयोग करते हैं। यह सहयोग नहीं है अपितु श्रमण संस्कृति को दोषपूर्ण बनाने के कारण आपका योग ही है क्योंकि यह व्यवस्था साधुओं को भी प्रलोभन में फंसा देती है और याचना भी करनी पड़ती है। साधु सोचने को तैयार नहीं कि याचनाशील होने पर मैं मोक्षमार्ग से च्युत हो जाऊँगा। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने याचना करने वाले को मोक्षमार्ग से पृथक माना है। जे पंच चेल सत्ता गंथग्गाहीय जायणासीला। आधा कम्मम्मिरया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ॥ 79 मो. पाहुड़ जो पाँच प्रकार के वस्त्रों में आसक्त है परिग्रह को ग्रहण करने वाले हैं याचना करते हैं तथा अध: कर्म निंद्यकर्म में रत हैं, ये मुनि मोक्षमार्ग से पतित हैं। परिग्रही साधक विशुद्धि को भी प्राप्त नहीं होता है जैसा कि कहा है - वैषम्ययत्यप्यं दिव्यं स्वीयमनिन्धं यद् द्रव्यम् । निश्चयनस्य विषयगृहीव परिगृही नाव्यम् ॥ यह परिग्रहवान मुनि भी निश्चयनय के विषयभूत अनिन्दनीय द्रव्य और अविनाशी स्वकीय द्रव्य को गृहस्थ के समान प्राप्त नहीं होता अर्थात् जिस प्रकार परिग्रही गृहस्थ शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार परिग्रही साधु भी नहीं प्राप्त होता । अत: विशुद्धि को बढ़ाने के लिए साधुओं का एक स्थान विशेष पर जीवन भर या लम्बी अवधि रूकने का मोह नहीं होना चाहिए जिससे उनका अनियमित विहार चलता रहेगा और वे आगम की मर्यादा की सुरक्षा करते हुए मोक्षमार्ग की महती प्रभावना कर सकेंगे। संदर्भ - 1. मूलाचार प्रदीप 31 2. तत्त्वार्थवार्तिक भा.पृ. 595 3. बृहत्कल्पभाष्य 1/36 4. सणसोधी ठिदिकरणभावणा अदिसयत्तकुसलत्तं । खेतपरिमग्गणावि य अणियदवा से गुणा होति ॥ भग.आराधना गा. 147 वही पृष्ठ 148, 149, 150 संविग्गवरे पासिय पियधम्मदरे अवज्जभीरुदरे । संयमवि पियथिरधम्मो साधु विहरतओ होदि ॥ भग. आराधना गा. 151 7. वही गा. 152 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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