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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ श्रेष्ठ जिनमंदिर में जो मुनिराज आदि ठहरते हैं, उनसे धर्म बढ़ता है और धर्म से मनुष्यों को श्रेष्ठ सम्पत्ति की प्राप्ति होती है और भी कहा है - मुनि: कश्चित् स्थानं रचयति यतो जैनभवने, विधत्ते व्याख्यानं यदवगमतो धर्मनिरताः । भवंतो भव्यौधा भवजलधिमुत्तीर्य सुखिनर - ततस्तत्कारी किं जनयति जनो यन्न सुकृतम् ॥ यतश्च जिनमंदिर में कोई मुनिराज आकर ठहरते हैं, तथा व्याख्यान करते हैं, जिनके ज्ञान से भव्य जीवों के समूह धर्म में लीन होते हुए संसार समुद्र को पारकर सुखी होते है । अतः जिनमंदिर के निर्माण कराने वाले पुरुष ऐसा कौन पुण्य है, जिसे न करवाता हो । साधु के योग्य निवास के संबंध में आचार्य अकलंक यह लिखते हैं - संयतेन शयनासन शुद्धिपरेण । स्त्री क्षुद्रचौरपानाक्षशौण्ड शाकुनिकादिपापजनवासावर्ज्या : श्रृंगारविकारभूषणोज्जवल वेषवेश्याक्रीडाभिरामगीतनृत्य - वादित्ताकुलशालादयश्च परिहर्तव्या । अकृत्रिमगिरिगुहातरूकोटरारयः कृत्रिमाश्च शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासा अनात्मोद्देशनिर्वतिता निराम्भा सेव्या । तत्त्वार्थवार्तिक 9/5 J. 552 शय्या और आसन की शुद्धि में तत्पर साधु को स्त्री, क्षुद्र, चौर, मद्यपायी, जुआरी, शराबी और पक्षियों को पकड़ने वाले आदि पापी जनों के स्थान में वास नहीं करना चाहिए तथा श्रृंगार, आभूषण, उज्ज्वल वेष, की क्रीड़ा से अभिराम (सुन्दर) गीत, नृत्य, वादित्र आदि से व्याप्त शाला आदि में रहने का त्याग करना चाहिए। शासनासन शुद्धि वाले संयतो को तो अकृत्रिम (प्राकृतिक ) पर्वत की गुफा, वृक्ष के कोटर आदि तथा कृत्रिम शून्यागार छोड़े हुए घर आदि ऐसे स्थानों में रहना चाहिए, जो उनके उद्देश्य से नहीं बनाये ये हों और जिनमें उनके लिए कोई आरंभ न किया गया हो । मुनियों का निवास तीन प्रकार का होता है। स्थान - खड़े होना, आसन - बैठना और शयन- सोना । इस प्रकार की वसतिकाओं में निवास करने पर ही परीषहजय नामक तप की पूर्णता होगी आचार्यों प्रत्येक परीषह का स्वरूप बताकर उन पर जय प्राप्त करने वाले साधकों की प्रशंसा की है । जैनाचार्य मठ, आश्रम आदि में स्थायी निवास करने की मुनि / आर्यिका को अनुमति प्रदान नहीं करते हैं। न जाने वर्तमान में यह प्रवृत्ति क्यों बढ़ रही है कि साधु / साध्वी / त्यागी व्रती अपनी देख-रेख में कोई न कोई आश्रम / मठ / संस्थान / संस्था का निर्माण कराकर उसी को अपना निवास बना रहे है । आस्था से जकड़ी समाज साधु/साध्वी / त्यागी / व्रती के कहने पर शक्ति के अनुसार अर्थ सहयोग करती है और उनकी बलवती इच्छाओं को पूर्ण करना अपना कर्तव्य समझती है । यदि कोई प्रबुद्ध समाज के मध्य कहता है कि अपरिग्रही साधक को परिग्रही बनाकर धर्म की हानि क्यों की जा रही है । साधुओं को एक स्थान पर नहीं रहना चाहिए गृहस्थों के साथ रहने पर परीषह भी नहीं होते हैं जिससे साधक की साधना में दोष लगने की 574 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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