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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मतिज्ञान श्रुतज्ञान का वहिरङ्ग कारण है। अंतरङ्ग कारण तो श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम है । क्यों किसी विषय का मतिज्ञान हो जाने पर भी यदि क्षयोपशम न हो तो उस विषय का श्रुतज्ञान नहीं हो सकता। फिर भी दोनों में इन्द्रिय और मन की अपेक्षा समान होने पर भी मति की अपेक्षा श्रुत का विषय अधिक है और स्पष्टता भी अधिक है। श्रुतज्ञान का कार्य शब्द के द्वारा उसके वाच्य अर्थ को जानना और शब्द के द्वारा ज्ञात अर्थ को पुन: शब्द के द्वारा प्रतिपादित करना । इसीलिए इसके अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक रूप एवं अंगबाह्य तथा अंग प्रविष्ट रूप दो भेद है । आचारांग, सूत्रकृतांग आदि अंग आगम के रूप में इस श्रुतज्ञान के बारह भेद हैं। उत्पादपूर्व, अग्रायणी, वीर्यानुवाद, अस्ति नास्ति प्रवाद, ज्ञान प्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद, कल्याणानुवाद, प्राणवाय प्रवाद, क्रियाविशाल तथा लोकबिन्दु सार पूर्व - इन चौदह पूर्वो के रूप में ज्ञान के चौदह भेद भी है। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र में कहा है "श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेक द्वादशभेदम् - 1/20 अर्थात् यह श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है तथा इसके दो, द्वादश एवं अनेक भेद होते हैं।" ___ मन वाले जीव अक्षर सुनकर वाचक के द्वारा वाच्य का ज्ञान होना अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है तथा बिना अक्षरों के द्वारा अन्य पदार्थ का बोध होना अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । यह एकेन्द्रिय आदि सभी जीवों को होता है। श्रुत का मनन या चिंतनात्मक जितना भी ज्ञान होता है वह सब श्रुतज्ञान के अंतर्गत है। यह रूपीअरूपी दोनों प्रकार के पदार्थो को जान सकता है। 3. अवधिज्ञान - भूत, भविष्यत काल की सीमित बातों को तथा दूर क्षेत्र की परिमित रूपी वस्तुओं को जानने वाला अवधिज्ञान होता है। अत: देशांतरित, कालांतरित और सूक्ष्म पदार्थो के द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव को मर्यादा से जानने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। यह अवधिज्ञानावरण और वीर्यन्तराय कर्म के क्षयोपशम से होता है। 4. मन:पर्यय -द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिए हुए इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही दूसरे के मन की अवस्थाओं (पर्यायों) का ज्ञान मन: पर्यय ज्ञान है । समान्य रूप में यह दूसरे के मन की बात को जानने वाला ज्ञान होता है । वस्तुत: चिंतक जैसा सोचता है उसके अनुरूप पुद्गल द्रव्यों की आकृतियाँ (पर्याये) बन जाती है और जानने का कार्य मन:पर्यय करता है। इसके लिए वह सर्वप्रथम मतिज्ञान द्वारा दूसरे के मानस को ग्रहण करता है, उसके बाद मन:पर्यय ज्ञान की अपने विषय में प्रवृत्ति होती है। अवधि और मन:पर्यय - ये दोनों ज्ञान आत्मा से होते है। इनके लिए इन्द्रिय और मन की सहायता आवश्यक नहीं है । ये दोनों रूपी द्रव्यों के ज्ञान तक ही सीमित है अत: इन्हें अपूर्ण प्रत्यक्ष कहा जाता है। अवधि ज्ञान के द्वारा रूपी द्रव्य का जितना सूक्ष्म अंश जाना जाता है। उससे अनंत गुणा अधिक सूक्ष्म अंश मनःपर्यय के द्वारा जाना जाता है । अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों को हो सकता है किन्तु मनःपर्यय ज्ञान मनुष्यगति में, वह भी संयत जीवों को ही होता है । इस पंचम काल में अवधिज्ञान का होना तो यहाँ संभव भी है, किन्तु मन:पर्यय ज्ञान होना दुर्लभ है। अवधि और मन:पर्यय की मोक्षमार्ग में अनिवार्यता नहीं है, जबकि मति और श्रुत ज्ञान अनिवार्य हैं। -560 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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