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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "संज्ञा' है। अर्थात् “यह वही है" - यह उसके सदृश है - इस प्रकार का पूर्व और उत्तर अवस्था में रहने वाली पदार्थ की एकता सदृशता आदि ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। इसे ही दर्शन क्षेत्र में प्रत्यभिज्ञान' इस नाम से जाना जाता है। क्योंकि यह अतीत और वर्तमान उभय विषयक है। भावी वस्तु की विचारणा या चिंतन को "चिंता" कहते हैं । व्याप्ति के ज्ञान को भी चिंता कहा जाता है । अभिनिबोध भी मतिज्ञान बोधक का एक सामान्य शब्द है। दार्शनिक क्षेत्र में इसे "अनुमान" शब्द से भी अभिहित किया जाता है । क्योंकि साधन से साध्य के ज्ञान को अभिनिबोध या अनुमान कहा है। मतिज्ञान के भेद - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा - ये मतिज्ञान के चार भेद हैं - (1) अवग्रह - विषय (ज्ञेय वस्तु) और विषयी (जानने वाले) का योग समीप्य (सन्निपात अथवा संबंध) होने पर सर्वप्रथम दर्शन होता है। यह दर्शन वस्तु की सामान्य सत्ता का प्रतिभास मात्र करता है । इस दर्शन के पश्चात् जो अर्थ का ग्रहण होता है, वह अवग्रह कहलाता है। इस तरह नाम, जाति आदि की विशेष कल्पना से रहित सामान्य मात्र का ज्ञान अवग्रह' कहलाया। जैसे गाढ़ अन्धकार में कोई वस्तु छू जाने पर यह ज्ञान होना कि यह कुछ है । अवग्रह में यह स्पष्ट मालूम नहीं होता कि किस चीज का स्पर्श हुआ है, इसलिए अव्यक्त ज्ञान अवग्रह है। (2) ईहा - अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये सामान्य विषय को विशेष रूप से निश्चित करने के लिए जो विचारणा होती है वह "ईहा" है। (3) अवाय - ईहा के द्वारा जाने हुए पदार्थ का विशेष निर्णय करने को अवाय कहते हैं। इसमें विशेष चिन्ह देखने से वस्तु का निर्णय हो जाता है कि यह अमुक वस्तु है। (4) धारणा - अवाय ही जब दृढतम अवस्था में परिणत हो जाता है, तब उसे धारणा कहते है। क्योंकि इसमें व्यक्ति अवाय से निश्चय किये हुए पदार्थ को कालांतर में भूलता नहीं है। धारणा को संस्कार भी कह सकते है ___ इस प्रकार अवग्रह में प्राथमिक ज्ञान, ईहा में विचारणा, अवाय में निश्चय तथा धारणा में इन्द्रिय ज्ञान की स्थितिशीलता (स्मृति) होती है। ये चारों द्रव्य की पर्याय को ग्रहण करते हैं, सम्पूर्ण द्रव्य को नहीं। क्योंकि इन्द्रिय और मन का मुख्य विषय पर्याय ही है। इन चारों की यह भी विशेषता है कि ये चारों क्षणभर में भी हो सकते हैं। और अनेक काल के बाद भी हो सकते है। 2. श्रुतज्ञान - मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ को मन के द्वारा उत्तरोत्तर विशेषताओं सहित जानने वाला श्रुतज्ञान है। मतिज्ञान पूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है । इन दोनों का कार्य-कारण भाव संबंध है । मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है। अत: मति और श्रुत - ये दोनों सहभावी ज्ञान हैं, एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ते। ये दोनों प्रत्येक संसारी जीव के होते है। 559 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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