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________________ आगम संबंधी लेख स्तोत्र - साहित्य में गिरिनार डॉ. कमलेश कुमार जैन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी जैनशास्त्रों में देव, शास्त्र और गुरू का विशेष महत्व है, क्योंकि इन तीनों की आराधना अथवा उपासना के अभाव में जीव मात्र का परम लक्ष्य मोक्षरूप पुरुषार्थ प्राप्त नहीं किया जा सकता है अत: इस परम पवित्र लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जैन मुनिश्री भी नित्य प्रति षडावश्यक कर्म करते हैं । इन षडावश्यक कर्मों में सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, स्तवन, वंदना एवं कायोत्सर्ग की गणना की गई है।' आचार्यो द्वारा प्रतिपादित इन षडावश्यकों में स्तवन का उल्लेख है। इससे यह स्पष्ट है कि स्तवन अर्थात् स्तुति मुनियों का एक आवश्यक और नित्य कर्म है अत: स्तुति - साहित्य का निर्माण हमारे आचार्यों ने पर्याप्त मात्रा में किया है। साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ स्तुति - साहित्य मन की भावनाओं को अभिव्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है। अर्थात् अपने आराध्य के चरणों में अपने को सर्वतोभावेन समर्पित करने का सुगम उपाय है। स्तुति के माध्यम से हम अपने आराध्य को न केवल सर्वशक्तिमान के रूप में स्मरण करते है, अपितु उसमें अपनी अशक्ति का भी उल्लेख करते हैं । हमारा आराध्य अथवा इष्ट कोई देव अथवा गुरु होता है अत: देव अथवा गुरु की स्तुति करने के लिए हृदयङ्गत - भावों को पद्य के माध्यम से प्रस्तुत करना स्तुति है । किसी पूज्य पुरुष से संबंधित क्षेत्र विशेष की महिमा का वर्णन करना अथवा धर्म-दर्शन के विशेष सिद्धांतों का गुम्फन करना भी स्तुति - साहित्य का एक अङ्ग है। लोकविश्रुत आचार्य समंतभद्र ने स्वयम्भूस्तोत्र में दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन करके चौबीस तीर्थंङ्करों के पावन चरणों में अपना विनम्र भक्तिभाव प्रदर्शित किया है । यह तथ्य किसी से छिपा हुआ भी नहीं है । किन्तु इसमें भी अपने पूज्य पुरुषों का स्तुतिगान ही प्रमुख है । क्योंकि अन्ततः उन सिद्धांतों का संबंध भी अपने पूज्य पुरुषों से ही है । आचार्य वसुनन्दी ने क्षेत्रपूजा के ब्याज से यह स्पष्ट किया है कि जिनेन्द्रदेव की जन्मभूमि, निष्क्रमणभूमि, केवल - ज्ञानोत्पत्ति स्थल, तीर्थं चिह्न स्थान एवं निषधिका आदि तीर्थ क्षेत्र है और इनकी पूजा भी की जाती है।' इससे पूर्व आचार्य यतिवृषभ ने अपने तिलोयपण्णत्ती नामक ग्रंथ में कालस्तव एवं क्षेत्रस्तव के अंतर्गत तथा परवर्ती विद्वान पण्डितप्रवर आशाधर ने अपने अनगारधर्मामृत नामक ग्रन्थ के उक्त तथ्यों का उल्लेख किया है। Jain Education International वर्तमान काल में इस अवसर्पिणी काल की वर्तमान चौबीसी के प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव से जैन धर्म का प्रादुर्भाव माना जाता है । तदुपरांत द्वितीय तीर्थङ्कर अजितनाथ आदि अन्य तेईस तीर्थङ्कर और हुए हैं, जिनमें भगवान् महावीर अंतिम एवं चौबीसवें तीर्थङ्कर हैं। इनमें प्रथम से लेकर इक्कीसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ तक सभी प्रागैतिहासिक काल के माने गये हैं। तदनंतर बाइसवें तीर्थङ्कर भगवान् नेमिनाथ यादववंशी थे, जो योगिराज श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। युवावस्था को प्राप्त होने पर इनका विवाह जूनागढ़ की राजकुमारी राजु से निश्चित हुआ था और विवाह हेतु यथासमय बारात जूनागढ़ पहुँच भी गई, किन्तु दरवाजे पर बंधे 533 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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