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________________ शुभाशीष/श्रद्धांजलि साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मेरी दृष्टि में महापुरूष पुरातन विद्वानों की श्रृंखला में डॉ. पं. दयाचन्द जी साहित्याचार्य का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। उनके पर लोक गमन के पश्चात् भी समाज बड़े आदर से उनका नाम लेती है। यथानाम तथा गुण वाली उक्ति प्रत्येक व्यक्ति के मुख से निकलती है। विद्वानों के या समाज के जितने भी व्यक्तित्व लिखित आये हैं उनमें अधिकतर व्यक्तित्वों में यही बात लिखी है कि पंडित जी तो 'यथानाम तथा गुण के धारी थे। मैंने उनके निकट में रहकर उनके जीवन में जो गुण देखे है वे गुण अन्य लोगों में कम ही दिखाई देते हैं, ऐसे सरल स्वभावी विद्वान के गुण लिखने के लिए मेरी लेखनी सहज ही चल जाती है। इस स्मृति ग्रन्थ में उनके गुणों को प्रस्तुत करना एवं उन्होंने अपने जीवन में जिनवाणी की कितनी सेवा की, उसे प्रस्तुत करना हमारा कर्त्तव्य है अतः स्मृति ग्रन्थ के बनने में मैं अपनी पूर्ण सेवा समर्पित करुंगी इसी भावना के साथ स्मृति ग्रन्थ के बनने में अपनी शुभकामना प्रेषित करती हूँ। - ब्र. किरण जैन शुभकामना मोराजी सागर के लिए जिन्होंने, दिया अमोलक दान । हम सब मिलकर आज उन्हीं का, करें सुमंगल गान ॥ जिस तरह साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता है ठीक उसी तरह व्यक्ति का शरीर । चेहरा उसके व्यक्तित्व का दर्पण कहा जा सकता है। इसलिए किसी व्यक्ति का स्मरण आते ही हमारे मस्तिष्क में अंकित उनके व्यक्तित्व की छवि सामने आ जाती है । आज पंडित जी का स्मरण आते ही मेरी स्मृतियों में बसी उनकी गरिमामयी छवि साकार हो उठती है। और याद आ रहे है वो क्षण जो मैंने उनके सानिध्य में बिताये थे। उनके प्राचार्यत्व काल में उन्हीं के निर्देशन में मैंने मोराजी से “शास्त्री व सिद्धांत रत्न" ये दो महत्वपूर्ण परीक्षाएँ दी और उनका उस संदर्भ में अमूल्य मार्गदर्शन प्राप्त किया। शांत स्वभावी पंडितजी अक्सर कम बोला करते थे। परन्तु हमें अपने विषय में कठिनाई उपस्थित होने पर सार्थक समाधान समय-समय पर मिल जाया करता था। उनके व्यक्तित्व में एक गरिमामयी सादगी दृष्टिगोचर होती थी। तथा उनमें एक तरह का मुखर मौन लोग महसूस करते थे। __ "सादा जीवन उच्च विचार" की वे साक्षात प्रतिमूर्ति ही थे। जो अपने ज्ञान विज्ञान से साहित्य को समृद्ध कर गये। अध्ययन और खोज के प्रति ऐसी लगन कुछ विरले विद्वानों में ही होती है। जो जीवन के अंतिम पड़ाव में 1990 में इन्होंने पी.एच.डी. (जैन पूजा काव्य) जैसे दुरूह कार्य को अपने ही शिष्य भागेन्दू जी के निर्देशन में सफलता पूर्वक पूरा किया । ऐसे साहित्य मनीषी के बारे में कुछ कहना यद्यपि सूर्य को दीपक दिखाने के समान है परन्तु इस माध्यम से ही हम उनको आदरांजलि प्रस्तुत कर सकते है अन्यथा और क्या माध्यम हो सकता है। अंत में यही कहूँगी कि - जिनके स्मरण से मेरा रोम-रोम हो जाता पुलकित है। उन साहित्य मनीषी को यह श्रद्धा सुमन समर्पित है। - ब्र. डॉ. वंदना जैन -10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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