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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ संस्कृत साहित्यसागर के मन्थन द्वारा आध्यात्मिक रत्न विशेषों के अन्वेषक भारतीय संस्कृत साहित्य प्राचीन विशाल एवं लोकोपयोगी है । भारतीय प्राचीन आचार्यों द्वारा प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य की रचना विविध विषयों में सम्पन्न की गई है। वे विषय जैसे अध्यात्म, संस्कृत साहित्य, व्याकरण न्याय, काव्य, ज्योतिष, आयुर्वेद पुराण चम्पूकाव्य, चरित्र काव्य, प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग द्रव्यानुयोग, वेद, शिक्षा कल्प, छन्द शास्त्र आदि । विक्रमादित्य के समय से संस्कृत साहित्य आदि का प्रचार-प्रसार तीव्र गति से होने लगा | समयानुसार सन् 1921 में श्री पं. पन्नालाल जी की प्रारंभिक शिक्षा प्रायमरी हिन्दी स्कूल सागर में हुई। पश्चात् 1922 में पूज्य पं. गणेश प्रसाद जी न्यायाचार्य की सत्कृपा से श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में प्रवेश प्राप्त कर संस्कृत व्याकरण धर्म साहित्य कोष आदि विषयों का अध्ययन प्रारंभ कर दिया । दानवीर माणिकचन्द्र दि. जैन परीक्षा बोर्ड बम्बई की सिद्धान्त शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् आप की सर्वतोमुखी प्रतिभा का दिग्दर्शन करते हुए पूज्य वर्णी जी ने आपको श्रीगणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में ही आवश्यकतानुसार अध्यापक नियुक्त कर दिया। काव्य तीर्थोत्तीर्ण, सन् 1931 में, आपकी दृष्टि में अपना अध्ययन नगण्य था, अत: अध्यापन के साथ ही स्वाध्ययन में निष्ठा के साथ पुरूषार्थ की प्रगति को किया । फलस्वरूप आपने 1936 में साहित्याचार्य का सागर पार किया। अनन्तर ही साहित्याचार्य के पद पर आपकी प्रसिद्धि हो गई। संस्कृत साहित्य और न्याय सिद्धान्त की उच्च परीक्षाओं को उत्तीर्ण कर, अध्यापन मनन चिन्तन और अध्यापन में आपने समय का सदुपयोग कर प्रगति हेतु महान् विचार किया कि यदि नो संस्कृता दृष्टि:, यदि जो संस्कृत: मनः। यदि नो संस्कृता वाणी, संस्कृताध्ययनेन किम् । अथवा करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान । रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निशान ॥ संस्कृत पद्य का तात्पर्य - यदि हमारी संस्कृत साहित्य में दृष्टि या आस्था नहीं है, मन अनुरक्त नहीं हैं, वाणी साहित्य सृजन करने में, बोलने में नहीं है तो संस्कृत के अध्ययन से क्या प्रयोजन ? ऐसा विचार कर आप साहित्य सृजन में समर्पित हुए। श्रीपरम पूज्य वर्णी जी महाराज की सत्प्रेरणा से सन् 1973 में डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर (म.प्र.) ने, स्वरचित शोध प्रबन्ध महाकवि हरिश्चन्द्र- एक अनुशीलन" पर " डाक्टर ऑफ फिलासफी" की उपाधि से साहित्याचार्य जी को अलंकृत किया । पश्चात् आपने स्वकार्यकाल में ही संस्कृत वाङ्मय का विकास करने हेतु संस्कृत ग्रन्थों का -413 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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