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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विकास व प्रकाशन आदि) व्यय करना चाहिए। और समाज के जो धनीमानी व्यक्ति ऐसे कार्यो में अपने द्रव्य का सदुपयोग करें उन्हें उनके त्याग और धर्म प्रेम के अनुकूल सामाजिक संस्थाओं द्वारा सामाजिक सम्मान एवं धर्मवत्सलता की सूचक पदवियों से सम्मानित किया जाना चाहिये । इस व्यवस्था से उन्हें ऐसे समाजोपयोगी धर्म कार्यो के प्रति प्रेरणा मिलेगी और समाज में धर्म की सच्चे अर्थो में प्राणप्रतिष्ठा भी होगी । धर्मज्ञान से ही मनुष्य में धर्म वत्सलता आ सकती है। उसके बिना मात्र जड़ प्रसाधन स्वपर कल्याण में सहायक भी नहीं बन सकता । धर्म प्रचार की सभी बातें इस बात पर ही तो अवलम्बित हैं कि समाज में धर्म के ज्ञाता अधिक से अधिक व्यक्ति व विद्वान हो। (2) दूसरी बात यह कि जैन धर्म के लोक कल्याणकारी सिद्धान्त और उसके तत्व ज्ञान की देश विदेश में प्रतिष्ठा बढे । लोक जीवन उससे अधिक से अधिक प्रभावित हो, इसके लिये जैन साहित्य का आधुनिक शैली से उच्च कोटि के विद्वानों द्वारा सृजन कराया जावे और उसे अल्प मूल्य में या संभव हो तो अमूल्य ही विद्वानों, शिक्षा संस्थाओं, साहित्य परिषदों पुस्तकालयों एवं वाचनालयों को समर्पित किया जावे। श्रेष्ठ रचनाओं के लिए विद्वानों को सम्मानित व पुरस्कृत किया जावे । स्कूल कॉलेज की जैन धर्म सम्बन्धी पाठ्य पुस्तकें भी इस प्रकार लिखाई जावे जो धर्म ज्ञान के साथ ही साथ विद्यार्थियों की धर्म विषयक अनुभूतियों में प्रेरक दृष्टि विकासक हो। यह भी एक अत्यंत जरूरी बात है कि जैन शिक्षा संस्थाओं में जैनधर्म की पढ़ाई को विशेष महत्व दिया जावे । और जैन विद्वानों का सामाजिक स्तर ऊंचा हो, वे अधिक से अधिक धर्म प्रचार के उपयोगी अंग बन सकें इसके लिये उन्हें आवश्यक आर्थिक सुविधायें प्रदान की जावें। संस्कृत विद्यालयों से जो छात्र उच्च उपाधियाँ प्राप्त कर सामाजिक क्षेत्र में आवें इसके पूर्व उन्हें छात्रवृत्तियाँ देकर कम से कम एक वर्ष तक प्रशिक्षित किया जावे। वे भाषाकला, लेखनकला, शास्त्र प्रवचन, पत्र सम्पादन, अनुसंधान और धर्म प्रचार आदि समस्त या किसी विशिष्ट विषयक योग्यताओं में दक्ष व प्रभावशाली विद्वान बनें इसके लिए उक्त व्यवस्था की विशेष आवश्यकता है। इन्दौर और बनारस के विद्यालय इसके लिये उपयुक्त केन्द्र हैं जहां सब प्रकार के विद्वानों का समागम एवं पुस्तकालय आदि के उपयुक्त साधन उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त और भी बहुत सी बातें हैं जो धर्म प्रचार के लिये अत्यंत उपयोगी हो सकती है। मैंने तो सुझाव रूप से थोड़ी सी बातें यहाँ उपस्थित की हैं। समाज के विद्वान त्यागी एवं अन्य सभी हित चिंतक महानुभाव इस सम्बन्ध में सचेष्ट हो उत्साह और तत्परता से काम करें तो धर्म प्रचार का बड़ा भारी काम किया जा सकता है। आशा हे मिशन बिखरी हुई सामाजिक शक्ति को संगठित कर इस दिशा में अधिक से अधिक प्रयत्नशील बना रहेगा। सर्व श्रेष्ठ है मंगल जग का, धर्म अहिंसा तप संयम । वह वंदित सुरगण से भी है, जो कि धर्म में रहता रम ॥ (3) -412 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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