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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ दुरिताद् दुर्गतिमेति जनोऽसौ शुभतो विलसति नर्म । सदा हे. भूरामल यदि नैवरोचते संवर मुपसर धर्म । सदा हे. __ (सर्ग 23, पद्य - 76, जयोदय) तात्पर्य - हे सज्जन ! इस जगत में प्राणी पर कर्म ही निज प्रभाव दिखाता है। पृथ्वी पर स्वकृत कर्म के बिना कौन हर्ता है और कौन भर्ता है । इस प्राणी ने जैसा बीज बोया है। उसी के अनुसार फल देता है भले ही वह सुख हो या दुख हो । यह जीव पाप से दुर्गति को प्राप्त होता है और पुण्य से सुख का अनुभव करता है। हे आत्मन ! यदि तुझे जन्म मरण के हेतु अच्छे नहीं लगते है। तो दोनों का त्याग कर संवर को स्वीकृत करो। यह दसंवर, धर्म रूप कवच है। जयोदय महाकाव्य में काव्य के नवरसों में से प्रशस्त शान्तरस आदि से अंत तक आत्मिक शान्ति प्रदान करता है प्रथम सर्ग के 100 वे तथा 101 वे पद्य से शान्तरस झलकता है एवं दिगम्बर मुनि राज के उपदेश से तथा उनकी चर्या से शान्तरस उछलता है । महाराज जयकुमार ने मुनि दीक्षा को अंगीकार कर तपस्या एवं महाव्रतों की साधना को प्रारंभ कर दिया स मोहं पातयामास, समोहं जिनपैरिति । ___ अनुभूतात्मसमोऽप्यनुभूतदयाश्रयः । सर्ग 28, पद्य 19॥ भावसौन्दर्य - प्राणिमात्र पर दया करने वाले, तपस्यारत मुनिराज, जयकुमार ने, मैं जिनेन्द्र भगवान के तुल्य हूँ अर्थात आत्मशक्ति की अपेक्षा परमात्मा के समान ज्ञाता, दृष्टा समता स्वभाववाला हूँ। इस प्रकार अपूर्व आत्मशक्ति का अनुभव करते हुए सम्पूर्ण मोह कर्म का क्षय कर दिया । इस प्रकार महाकाव्य के अंत में भी प्रधान शान्तरस अपना प्रभाव दर्शाता है। वीररस, करूणरस और श्रृंगार रस अपना यथायोग्य रूप से प्रभाव दर्शाते हुए शान्तरस के ही अंग (अंश) बन जाते है। अनंतर महाकाव्य जयोदय में अलंकार पर चिंतन किया जाता है । जिस प्रकार शरीर की शोभा हार कुण्डल आदि से और आत्मा की शोभा शक्ति विनय ज्ञान आदि गुणों से होती है उसी प्रकार शब्दों की शोभा अनुप्रास यमक आदि से और अर्थ की शोभा उपमा उत्प्रेक्षा आदि से होती है। इसलिए इनको अलंकार की तरह अलंकार कहते है। अलंकार के 3 प्रकार होते है (1) शब्दालंकार (2) अर्थालंकार (3)उभयालंकार। प्रकृत जयोदय काव्य में सभी तरह के अलंकारों का बाजार भरा हुआ है। जिस काव्यरसिक को जिस अलंकार की इच्छा हो वह उसको ग्रहण कर सकता है । यथा विरोधाभासालंकार का चमत्कार - सदाचार विहीनोऽपि, सदाचार परायणः । संजाये तामिहेदानीं, रूजाहीनो नर: सरूक् ॥ (जयोदय सर्ग 19 : पद्य 94) काव्य सौन्दर्य - इस भारत वर्ष में इस समय मनुष्य सत्य आचरण से रहित होकर भी सत्य आचरण से सहित है यह विरोध है परिहार सदा (नित्य ही) परिभ्रमण से रहित होता हुआ भी समीचीन आचरण से सहित है तथा रोग से रहित होकर भी रोग से सहित है । यह विरोध होता है परिहार रोग से रहित होकर भी (362) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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