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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सवंशः क्षत्रियो वापि, धीरोदात्तगुणान्वित: ॥ (साहित्य दर्पण: परि.6. पद्य 16) व्याख्या - सर्गों की रचना के क्रम से जिस पद्यकाव्य की रचना हो उसको महाकाव्य कहते हैं , इस महाकाव्य में एक ही श्रेष्ठ नायक का चरित चित्रण किया जाता है, वह नायक देव विशेष अथवा प्रसिद्ध राजवंश का राजा होता है जिसमें धीरोदात्त' नायक के गुण विद्यमान रहते हैं। किसी महाकाव्य में अनेक कुलीन नृपों के चरित्र का वर्णन भी रहता है। श्रृंगार वीर और शान्त रसों में से कोई एक प्रधान रस, अन्य रसों के वर्णन से पुष्ट किया जाता है। अर्थात् एक रस प्रमुख होता है अन्य रस गौण होते हुए भी उस प्रमुख रस को वलिष्ठ करते है विरोधी नहीं होते है। कोई ऐतिहासिक अथवा पौराणिक महापुरूष के जीवन से संबद्ध श्रेष्ठ लोक प्रसिद्ध वृत्त या चरित्र इसमें वर्णित किया जाता है। सामान्य रूप से महाकाव्य में पुरूषार्थ चतुष्टय का काव्यात्मक निरूपण किया जाता है परन्तु श्रेष्ठ फल के रूप में मोक्ष पुरूषार्थ का ही सर्वतो भद्र वर्णन युक्तियुक्त माना गया है, शेष पुरूषार्थ त्रय उसके कारण बन जाते है । महाकाव्य का आरंभ मंगलात्मक होता है, किसी किसी महाकाव्य में दुष्टनिन्दा और सज्जन प्रशंसा भी उपनिबद्ध होती है। प्रत्येक सर्ग में कोई एक छन्द में निबद्ध पद्य होते हैं और अंत में कोई अन्य छन्द में पद्य निबद्ध होता है, जैसे लम्बी दौड़ में प्रवृत्त मानव रूकने के पूर्व दोड़ बदल देता है।आठ सर्ग से कम सर्ग महाकाव्य में नहीं होते और न अत्याधिकसर्ग होते है । किसी किसी महाकाव्य में अनेक छन्दों में निबद्ध पद्यों से विभूषित सर्ग होते है। महाकाव्य में यथा स्थान यथा संभव निम्न लिखित विषयों का वर्णन होता है - सूर्य चन्द्र संध्या रात्रि दिन प्रदोष अंधकार प्रभात समुद्र मुनि स्वर्ग मध्याह्न पर्वत ऋतु वन उपवन समुद्र नगर यज्ञ संग्राम यात्रा विवाह नायक नायिका राजा राज्ञी राज्य आदि । काव्य या महाकाव्य के कुछ विषय से विभूषित पद्य प्रबन्ध को खण्डकाव्य कहते है। जैसे पवनदूत, मेघदूत रामवनगमन आदि। उपरिकथित काव्य महाकाव्य के लक्षण या विषय जयोदय महाकाव्य में यथायोग्य सुशोभित होते हैं। प्राचीनकाल में पुराण प्रसिद्ध आचार्यों में प्रधान जिन सेन ने ऋषभ देव के समय व्रती ज्ञानी के रूप में जिस की प्रशंसा की ऐसे अपूर्व गुणों से सम्पन्न वे महाराजा जय कुमार हस्तिनापुर का शासन कर रहे थे अर्थात् हस्तिनापुर के नरेश थे और 14 विद्याओं में निपुण थे। इस महाकाव्य में पौराणिक महापुरूष जय कुमार और सुलोचना सती का वर्णन (जीवन चरित) 28 सर्गों में समाप्त होता है। इन सर्गो में 2865 पद्य 63 प्रकार के छन्दों में निबद्ध किये गये है। इनमें कुछ लौकिक हिन्दी छन्दों में भी संस्कृत पद्य विरचित हैं, उदाहरणसदा हे साधो प्रभवति वसुमति कर्म (स्थायी टेक) कः खलुहर्ता को मुनि भर्ता कस्य विना निजकर्म । सदाहे उक्त मिवोक्तं फलतीह तु यो विलसत्यपशर्म । सदा हे. 361 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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