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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सकता । लौकिक धन का भाईयों में बँटवारा हो सकता है, परन्तु ज्ञान-धन का नहीं। लौकिक धन का बोझ हो सकता है परन्तु ज्ञान धन का नहीं, उससे तो आत्मा स्वतंत्र होता है। लौकिक धन खर्च करने पर घटता है परन्तु ज्ञान-धन खर्च करने पर अर्थात् पढ़ाने-लिखाने पर, बढ़ता है नित्य ही। इन सब कारणों से यह सिद्ध होता है कि विद्याधन विश्व के समस्त धनों में प्रधान कहा गया है। छात्रों को इस अक्षय विद्याधन का नित्य अर्जन करना आवश्यक है। जैन समाज के अन्तर्गत श्री पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी महाराज आदि ने संस्कृत विद्यालय स्थापित किये। उनमें बहुत वर्षों तक संस्कृत, साहित्य-धर्म आदि का उच्च अध्ययन-अध्यापन चलता रहा है । अब वह अध्ययन उच्च स्तर पर नहीं चल रहा है। कुछ विद्यालय इन्टर कॉलेज, हाईस्कूल, मिडिल स्कूल आदि के रूप में परिवर्तित हो गये हैं। कुछ विद्यालयों में छात्र संस्कृत पढ़ना नहीं चाहते हैं अत: संस्कृत एवं धर्म का उच्च अध्ययन पतित होता जा रहा है यह विचारणीय विषय है। जैन हाई स्कूलों में भी प्राय: धर्म का अध्ययन नकारात्मक होता जा रहा है। इस विषय में भी उपेक्षा हो रही है। अत: भगवान महावीर के सिद्धान्तों के प्रचारप्रसार के लिए नैतिक शिक्षा का होना हाईस्कूलों आदि संस्थाओं में अत्यावश्यक है। समाज के कर्णधारों को इस विषय में ध्यान देना जरूरी है। छात्रों में धार्मिक शिक्षा से ही संस्कार अच्छे हो सकते हैं जो जीवनपर्यन्त जीवन को पवित्र उज्जवल बनाने में समर्थ होते हैं। "यिन्नवे भाजने लग्न; संस्कारो नान्यथा भवेत्"। जयोदय महाकाव्य - एक पर्यवेक्षण श्रमणशिरोमणि, आचार्य प्रवर श्री 108 ज्ञान सागर जी महाराज ने वि.सं. 1983 में 'जयोदय महाकाव्य' अपरनाम 'सुलोचनास्वयंवर' की रचना कर भारतीय साहित्य अथवा संस्कृत साहित्य के निधान को वृद्धिंगत किया है । यह संस्कृतग्रन्थ सामान्य दृष्टि से काव्य भी कहा जा सकता है । और साहित्यग्रन्थ भी कहा जा सकता है। तथाहि 'कवे- भावः कर्तव्यकर्म वेति काव्यम्' अर्थात् जो कवि का भाव है अथवा कर्तव्य कर्म है उसे काव्य कहते है। यह जयोदय महाकाव्य एक विद्वान कवि के हृदय के श्रेष्ठ विचारों का समूह है अथवा एक पौराणिक महापुरूष के कर्तव्य कर्म का निर्देश कारक है । अथवा 'कविना प्रोक्तं इति काव्यम्' अर्थात् विज्ञ कवि के द्वारा जो कहा गया है। वह काव्य है। इस महाकाव्य को साहित्य ग्रन्थ भी कहा जा सकता है तथाहि 'हितं शब्दार्थ समुदाय: हितकार कत्वात् हितेन सहित: इति सहितः, सहितस्य भावः इति साहित्यं अर्थात् शब्दार्थ समुदाय को हित कहते है क्योंकि वह लोकहितऔर आत्महित करने वाला है, हित से जो युक्त है वह सहित कहा जाता है और सहित के भाव को साहित्य कहते है । इस अपेक्षा से जयोदय महाकाव्य यथार्थ में साहित्य है कारण कि वह साहित्य -355 (355) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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