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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ शिक्षा से सुशिक्षित करना जरूरी है। इन संस्थाओं में सौभाग्य से बालक के तृतीय गुरू शिक्षा प्रदान के लिए मिल जाते हैं। उनमें छात्र श्रम से अभ्यास करें। नीतिज्ञों ने कहा है __"माता शत्रु: पिता बैरी, येन बालो न पाठित: । न शोभते सभामध्ये, हंसमध्ये वको यथा ॥" तात्पर्य यह है कि जिसने बालक को सुशिक्षित नहीं किया या कराया, उस बालक की माता शत्रु है, और पिता बैरी हैं। जैसे कि हंसों के मध्य में बगुला शोभित नहीं होता, उसी प्रकार उस अशिक्षित बालक का देश, समाज और परिवार में कोई सम्मान नहीं होता, किन्तु कुसंगति में असभ्य होने से उसका सर्वत्र तिरस्कार ही होता है । उसको माता-पिता भी नहीं चाहते हैं। नीतिज्ञों का नीतिवचन है यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य, तिर्यंचोपि सहायताम् । अपन्थानं तु गच्छन्तं, सोदरोपि विमुंचति ॥ सारांश- विनयी सदाचारी न्यायी मनुष्य की पशु भी रक्षा करते हैं जैसे सदाचारी ग्वाला की हाथी ने रक्षा की थी । दुराचारी पापी मनुष्य को भाई भी छोड़ देता है जैसे रावण को विभीषण ने छोड़ दिया था और लंका का राज्य प्राप्त कर लिया था। इसलिए मनुष्य को न्याय नीति का मार्ग ग्रहण करना आवश्यक है। देश के शिक्षालयों में लौकिक विद्याभ्यास का स्तर तो उच्च और उच्चस्तर है, परन्तु नैतिक शिक्षा का स्तर अल्प एवं अल्पतर है, इसलिए उच्च डिग्री प्राप्त करने पर भी छात्रों का धार्मिक एवं नैतिक ज्ञान नहीं के समान है, वे जीवन में अपने कर्त्तव्य के ज्ञान से शून्य होते हैं। इसलिए द्यूत आदि व्यसनों, अन्याय अनीति के मार्गों में प्रवृत्ति कर वे अपने जीवन को भ्रष्टाचारी बना देते हैं। नैतिक शिक्षा विद्या ददाति विनयं, विनयाददाति पात्रताम् । पात्रत्वाद् धनमाप्नोति, धनाद् धर्म तत: सुखम् ॥ सारांश- विद्या विनय को देती है और विनय से विद्या (ज्ञान) प्राप्त होती है । विद्या एवं विनय से मानव सुयोग्य सदाचारी होता है, सुयोग्य होने से धन की प्राप्ति होती है, निर्दोष विद्यावान पुरुष को लक्ष्मी चारों ओर से प्राप्त होती है। परोपकार में तथा ज्ञान दान आदि में धन खर्च करने से धर्म की प्रभावना होती है, समाज का कल्याण हाता है, और धार्मिक प्रभावना तथा समाज कल्याण से जीवन सुख शान्तिपूर्ण होता है। अपरंच - “सा विद्या या विमुक्तये"। वह ज्ञान सत्य है जो जीवन्मुक्ति या मुक्ति का मार्ग व्यक्त करे अथवा यथार्थ ज्ञान वह है जो दोषों का बहिष्कार कर गुणों को ग्रहण कराने में समर्थ हो। न चोरहार्यं न च राजहार्य, न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि। व्यये कृते वर्धत एव नित्यं, विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ॥ सारांश- लौकिक धन को चोर चुरा सकता है परन्तु विद्याधन को चोर चुराने में असमर्थ है । लौकिक धन को राजा टेक्स के रूप में ले सकता है परन्तु ज्ञान धन को राजा टैक्स आदि के रूप में नहीं ले (354 अपि च: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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