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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सारांश - जो मानव जिनबिम्ब प्रतिष्ठा को, जिनेन्द्र देव के ध्यान को, अष्टद्रव्य से जिनेन्द्रपूजा को और जिनेन्द्रदेव की स्तुतियाँ स्तोत्र को शुद्धभाव से करता है उस मानव को जगत् में कोई भी श्रेष्ठ फल दुर्लभ नहीं है। इन प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि जैन संस्कृति में पूजा के अनेक प्रकार हैं। उनमें भी प्राचीन काल में तथा भोगभूमि के पश्चात् कर्मभूमि में सर्वप्रथम गुणस्मरण और स्तोत्र एवं विनयपूर्वक नमस्कार करने से ही पूजाकर्म किया जाता था। इस विषय में स्व. श्री पं. नेमिचंद्रजी ज्योतिषाचार्य ने भी कहा है - "सिद्ध है कि आरंभ में गुणस्मरण और स्तवन के रूप में भक्तिभावना प्रचलित थी । अष्टद्रव्य रूप पूजन का प्रचार उसके पश्चात् ही हुआ है।" स्तोत्रभक्ति के विषय में एक अन्य प्रमाण और श्री दिया गया है जिसको आचार्य समंतभद्र ने श्री नमिनाथ तीर्थंकर के स्तवन में श्री बृहत्स्वयम्भू स्तोत्र के अंतर्गत कहा है - स्तुति: स्तोतुः साधो: कुशलपरिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः। किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायसपथे स्तुयान्नत्वा विद्वान्सततमपिपूज्यं नमिजिनम्॥ अर्थात् स्तुति के समय स्तुत्य वर्तमान रहे अथवा न रहे फलप्राप्ति उसके द्वारा होती हो अथवा न होती हो, पर भक्तिभाव पूर्वक स्तुति करने वाले को, शुभोपयोग के कारण पुण्य की प्राप्ति होती ही है। स्तुति करने से श्रेयोमार्ग सुलभ हो जाता है । इसलिये विद्वान् सर्वदा शुद्धभाव पूर्वक पूज्य नमितीर्थकर का स्तवन करें। श्रमण संस्कृति में मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, ऐलक, आचार्य एवं उपाध्याय, भक्तिपाठों के माध्यम से भावात्मक देवपूजा करते हैं और गृहस्थ या श्रावक स्तोत्र तथा अष्टद्रव्यों के माध्यम से द्रव्यात्मक देवपूजा का कर्तव्यपूर्ण करते हैं। परन्तु श्रावकों को शुद्धभावपूर्वक द्रव्य पूजा करना आवश्यक है। मुनि आदि रत्नत्रय की साधना करने वाले महाव्रती धर्मात्मा, भक्तिपाठों के द्वारा ही बिना द्रव्य के अपने भावों को विशुद्ध करने की क्षमता रखते हैं । इसलिये श्री कुंदकुंदाचार्य ने प्राकृत में दश भक्तिपाठों की और पूज्यपादाचार्य ने संस्कृत में दश भक्तिपाठों की रचना कर श्रेयोमार्ग की साधना को प्रशस्त किया है। इन भक्तिपाठों में वीतरागदेव, शास्त्र, गुरु का, पंचपरमेष्ठी देवों का और चतुर्विशति तीर्थंकरों का यथायोग्य गुण कीर्तन किया गया है। भक्तिपाठों के पश्चात् स्तवन तथा स्तोत्र का क्रम वर्णित किया जाता है । भक्तिपाठों के समान स्तवन का भी अतिमहत्व एवं उपयोग देखा जाता है। स्तवन, स्तव, स्तुति, नुति इन शब्दों का सामान्य रूप से एक ही गुणकीर्तन अर्थ जाना जाता है। विशेष रूप से इनका विचार करने पर स्तवन आदि शब्दों में विशेषता ज्ञात होती है वह इस प्रकार है - संस्कृत व्याकरण के कृदन्त प्रकरण में स्तुति अर्थ वाली 'स्तु'धातु से भाव में अप प्रत्यय संयुक्त करने पर स्तव शब्द सिद्ध होता है । 'स्तु'धातु से ल्युट् (यु-अन) प्रत्यय युक्त करने पर स्तवन शब्द सिद्ध होता है। 'स्तु'धातु से ति प्रत्यय जोड़ने पर स्तुति शब्द और 'स्तु'धातु से त्र प्रत्यय (336 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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