SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 384
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पंचस्तोत्रसंग्रह: एक समीक्षात्मक परिशीलन भारत में उपासना की विभिन्न पद्धतियाँ प्रचलित है और वर्तमान में हो रही है। अपने - अपने सिद्धांत तथा परम्परा के अनुसार उपासना पद्धति अपना स्वयं स्थान सुरक्षित रखती है। वैदिक परम्परा में यज्ञ का प्रमुख स्थान है और श्रमण परम्परा में देवपूजा का प्रमुख स्थान है। वैदिक क्रियाकाण्ड का प्रयोजन यज्ञ के माध्यम से अग्नि आदि देवों को प्रसन्न करना है और श्रमण देवपूजा का प्रयोजन आत्मशुद्धि, पुण्योपार्जन, स्वर्गप्राप्ति और मोक्ष की प्राप्ति है । देवपूजा का प्रसार द्रविडदेश में अधिक था, कारण कि दक्षिणभारत में श्रमण संस्कृति का व्यापक प्रसार था। अत: दक्षिणभारत श्रमण संस्कृति का केन्द्र कहा जाता है। इतिहास कहता है कि सम्राट चन्द्रगुप्त के शासनकाल में बारहवर्षीय अकाल के समय श्री भद्रबाहु आचार्य अपने संघस्थ बारह सौ मुनियों के साथ, धार्मिक प्रभावना, स्वात्मसाधना और उपसर्ग के निवारणार्थ विहार करते हुए दक्षिणभारत में गये थे। वहाँ उन्होंने अपने परम मुनिधर्म की साधना की। इससे सिद्ध होता है कि दक्षिणभारत जैनधर्म एवं संस्कृति का महान् केन्द्र था। अन्यथा इतने विशाल मुनिसंघ का निर्वाह होना कठिन था। जैन साहित्य में पूजन विधान का वर्णन प्रतिष्ठापाठों, श्रावकाचारों और आराधनाग्रन्थों में पाया जाता है। श्रमण परम्परा में उपासना या पूजा की पद्धति अनेक प्रकार की होती है, जैसे कि अष्टद्रव्यों से पूजन करना, द्रव्यों के बिना भावपूजन करना, स्तवनों या स्तोत्रों से गुणों के अर्चन, गुणों के स्मरण से भावपूजन और नमस्कार करने से पूजन करना, प्रत्यक्ष और परोक्ष पूजन करना, द्रव्यपूजन और भावपूजन करना, जाप के द्वारा पूजन करना आदि इसी विषय को संस्कृतज्ञ महाकवि धनञ्जय ने विषापहार स्तोत्र में कहा है - स्तुत्यापरं नाभिमतं हि भक्त्या, स्मृत्या प्रणत्या च ततो भजामि । स्मरामि देवं प्रणमामि नित्यं, केनाप्युपायेन फलं हि साध्यम् ॥ सारांश - भगवान की स्तुति द्वारा ही इच्छित फल की सिद्धि नहीं होती, किन्तु भक्ति (आठ द्रव्यों द्वारा पूजन) से, स्मरण, ध्यान जाप और नमस्कार से भी इच्छित फल की सिद्धि होती है, इसलिये मैं परमेष्ठीदेव की भक्ति (पूजा) करता हूँ, आपका ध्यान एवं स्मरण करता हूँ और आपको प्रणाम करता हूँ। कारण कि इच्छित मनोरथ की प्राप्ति रूप फल को किसी भी उपाय से प्राप्त कर लेना चाहिये । इस पद्य में कविवर ने पूजा के अनेक प्रकार दर्शाये हैं। पद्मपुराण में भी अनेक प्रकार से जिनेन्द्र पूजा का विधान है : जिनबिम्बं जिनाकारं जिनपूजां जिनस्तुतिम् । य: करोति जनस्तस्य, न किचिद् दुर्लभं भवेत् ॥ (पद्मपुराण, अ. 14. श्लोक 213) -335 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy