SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 373
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सम्यक्त्व मार्गणा - सात तत्व अथवा नव पदार्थ के यथार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं । इसके औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक के भेद से तीन भेद हैं । मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति तथा अनन्तानुबंधी चतुष्क इन सात प्रकृतियों के उपशम से जो होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। उपर्युक्त सात प्रकृतियों के क्षय से जो होता है उसे क्षायिक कहते हैं और मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी चतुष्क इन छह सर्वघाति प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय तथा सद्वस्था रूप उपशम तथा सम्यक्त्व प्रकृति नामक देशघाति प्रकृति के उदय से जो होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। औपशमिक सम्यक्त्व के प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम की अपेक्षा दो भेद हैं। प्रथमोपशम का लक्षण ऊपर लिखे अनुसार है । द्वितीयोपशम में अनन्तानुबंधी की विसंयोजना अधिक होती है। उपर्युक्त तीन सम्यक्त्वों के अतिरिक्त सम्यक्त्व मार्गणा के मिश्र, सासादन और मिथ्यात्व इस प्रकार तीन भेद और होते हैं । मिथ्यात्व प्रथम गुणस्थान में, सासादन, द्वितीय गुणस्थान में, मिश्र, तृतीय गुणस्थान में, प्रथमोपशम सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थान से सातवें तक द्वितीयोपशम सम्यक्त्व चतुर्थ से ग्यारहवें तक और क्षायिक सम्यक्त्व, चतुर्थ से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक तथा उसके बाद सिद्ध पर्याय में भी अनन्त काल तक विद्यमान रहता है । औपशमिक और क्षायोशमिक ये दो सम्यक्त्व असंख्यात बार होते हैं और छूटते हैं परन्तु क्षायिक सम्यक्त्व होकर कभी नहीं छूटता है । क्षायिक सम्यक्त्व का धारक जीव पहले भव में, तीसरे भव में अथवा चौथे भव में नियम से मोक्ष चला जाता है। संज्ञित्व मार्गणा - जो मन सहित हो उसे संज्ञी कहते हैं। संज्ञी जीव मन की सहायता से शिक्षा आलाप आदि के ग्रहण करने में समर्थ होता है । जो मन रहित होता है उसे असंज्ञी कहते हैं । असंज्ञी जीव के एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है परन्तु संज्ञी जीव के चौदहों गुणस्थान होते हैं। आहार मार्गणा - शरीर रचना के योग्य नोकर्म वर्गणाओं के ग्रहण करने को आहार कहते हैं। जो आहार को ग्रहण करता है उसे आहारक कहते हैं । इसके विपरीत जो आहार को ग्रहण नहीं करता है उसे अनाहारक कहते हैं । विग्रहगति में स्थित जीव, केवली समुद्घात के प्रतर और लोकपूरण भेद में स्थित केवली अयोग केवली और सिद्ध परमेष्ठी अनाहारक हैं, शेष आहारक हैं। गुणस्थानों की अपेक्षा अनाहारक अवस्था प्रथम, द्वितीय,चतुर्थ समुद्घातकेवली और अयोगकेवली नामक तेरहवें चौदहवें गुणस्थानों में होती है । इस प्रकार गति आदि चौदह मार्गणाओं में यह जीव अनादि काल से परिभ्रमण कर रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy