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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ होता है वह द्रव्य लेश्या और क्रोधादि कषायों के निमित्त से परिणामों में जो कलुषितपने की हीनाधिकता है वह भाव लेश्या है। द्रव्य लेश्या के कृष्ण नील, कापोत, पीत,पद्म और शुक्ल ये छह भेद स्पष्ट ही प्रतीत होते हैं। परन्तु भाव लेश्या के तारतम्य को भी आचार्यो ने इन्हीं कृष्ण, नील कापोत, पोत, पद्म, शुक्ल नामों के द्वारा व्यहृत किया है । वैसे आत्मा के भावों में कृष्ण नील आदि रंग नहीं पाया जाता है। मात्र उनकी तरतमता बतलाने के लिये इन शब्दों का प्रयोग किया गया है । परिणामों की तरतमता इस दृष्टान्त से सरलता पूर्वक समझी जा सकती है। भूख से पीड़ित छह मनुष्य जंगल में भटककर एक फैले हुए वृक्ष के नीचे पहुंचते हैं। उनमें से एक मनुष्य तो वृक्षको जड़ से काटना चाहता है, दूसरा तने से , तीसरा शाखाओं से, चौथा टहनियों से, और पांचवां फलों से, छठवां मनुष्य वृक्ष के नीचे पड़े हुए फलों से अपनी भूख दूर करना चाहता है नवीन फल तोड़ना नहीं चाहता। जो अत्यन्त क्रोधी हो, भंडनशील हो, धर्म और दया से रहित हो, दुष्ट प्रकृति का हो, वैरभाव को नहीं छोड़ता हो तथा किसी के वश में नहीं आता हो वह कृष्ण लेश्यावाला है। जो मन्द हो, निबुर्द्धि हो, विषय लोलुप हो, मानी, मायावी, आलसी अधिक निद्रालु और धनधान्य में तीव्र आसक्ति रखने वाला हो वह नील लेश्या वाला है। जो शीघ्र ही रुष्ट हो जाता है, दूसरे की निन्दा करता है, बहुत द्वेष रखता है, शोक और भय अधिक करता है, दूसरे से ईर्ष्या करता है, अपनी प्रशंसा करता है, युद्ध में मरण चाहता है, हानि लाभ को नहीं समझता है तथा कार्य अकार्य का विचार नहीं करता है वह कापोत लेश्या का धारक है। जो कार्य, अकार्य को समझता है, सेव्य और असेव्य का विचार रखता है, दया और दान में तत्पर रहता है तथा स्वभाव का मृदु होता है वह पीत लेश्या वाला है। जो त्यागी, भद्र, क्षमासील और साधु तथा गुरुओं की पूजा में रत रहता है वह पद्म लेश्या वाला है। जो पक्षपात नहीं करता, निदान नहीं करता हैं, सबके साथ समान व्यवहार करता है जिसके राग नहीं है, द्वेष नहीं है और स्नेह भी नहीं है वह शुक्ल लेश्या वाला है। प्रारंभ से चतुर्थ गुणस्थान तक छहों लेश्याएं होती हैं, पाँचवें से सातवें तक पीत पद्म और शुक्ल ये तीन लेश्याएं होती है आगे उसके तेरहवें गुणस्थान तक शुक्ल लेश्या होती है । यद्यपि ग्यारहवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक कषाय का अभाव है तो भी भूतपूर्व प्रज्ञापन नय की अपेक्षा वहाँ लेश्या का व्यवहार होता है। चौदहवें गुणस्थान में योग प्रवृत्ति का भी अभाव हो जाता है अत: वहाँ कोई लेश्या नहीं होती। भव्यत्व मार्गणा जो सम्यग्दर्शनादि गुणों से युक्त होगा उसे भव्य कहते है और जो उनसे युक्त नहीं होगा उसे अभव्य कहते हैं । भव्य, कभी अभव्य नहीं होता और अभव्य कभी भव्य नहीं होता। अभव्य जीव के एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है और भव्य जीव के चौदहों गुणस्थान होते हैं। सिद्ध होने पर भव्यत्व भाव का अभाव हो जाता है। 323 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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