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________________ - कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विकास परम्परा __ प्रत्येक अवसर्पिणी कालके तीसरे विभाग के अन्तिम समय से इस महापर्व का प्रारम्भिक विकास होता है उस समय से लेकर अब तक उसकी परम्परा चली आ रही है, वर्तमान महा पर्व उसी परम्परा का अंग है। दिगम्बर मान्यता के अनुसर भाद्र शुक्ला 5 से 14 तक यह पर्व विशेष रुप से मनाया जाता है । माघ शुक्ला तथा चैत्र शुक्ला में भी यह पर्व यथा शक्ति मनाया जाता है । इस प्रकार इस पर्व की वर्ष में तीन शाखाएँ विकसित होती हैं। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार यह पर्व भाद्र कृ, 10 से भाद्र शु. 4 तक समारोह के साथ सम्पन्न किया जाता है। इसी प्रकार उत्सर्पिणी काल के प्रथम विभाग से लेकर महापर्व का प्रारम्भिक विकास होता है जो उत्सर्पिणी के तीसरे काल तक प्रवाहित रहता है। चौबीस तीर्थंकरों के तीर्थ में इस पर्व का अधिक विकास होता है। धर्म और उसकी धारायें - __ इस महापर्व में धर्म की साधना विशेष रुप से की जाती है इसलिए यह धार्मिक पर्व कहा जाता है। धार्मिक साधन के पूर्व धर्म का लक्षण जानना आवश्यक है। धर्म का लक्षण आचार्यों ने कहा है - वथ्थु सुभावो धम्मो, उत्तम खमआदि दह विधो धम्मो । रयणत्तयं च धम्मं, अहिंसा हि लक्खणो धम्मो ॥ अर्थात- निश्चयनय से सामान्य रुप से वस्तु के स्वभाव नित्य गुण अथवा शुद्ध प्रकृति को धर्म कहते हैं। जब विश्व के मानव सामान्य लक्ष्य से धर्म का अर्थ नहीं समझ सकते हैं। तथा व्यवहार धर्म का तदनुरुप पालन करने में असमर्थ रहते हैं। उस दशा में आचार्यो ने व्यवहार नय से धर्म के विशेष लक्षण कहे हैं। इस दश लक्षण पर्व में क्रमश: धर्म के दश अंगों की उपासना की जाती है । वे निम्न प्रकार है - जो अमृतचन्द्राचार्य की लेखनी से प्रसिद्ध है - धर्म: सेव्य : क्षान्ति मुंदुत्वमृजुता च शौचमथ सत्यम् । आकिंच्चन्यं ब्रह्म त्यागश्च तपश्च संयमश्चेति ॥ (1) उत्तम क्षमा (क्रोध को जीतकर सहनशीलता धारण करना), (2) मार्दव- (मान कषाय का त्याग कर विनय ग्रहण करना), (3) आर्जव- (माया कषाय को नष्ट कर सरल अर्थात् निष्कपट वृत्ति की धारणा), (4) शौच- (लोभ का बहिष्कार कर भावों को पवित्र रखना), (5) सत्य- (यथार्थ हित मित प्रिय वचनों का प्रयोग करना) , (6)संयम- (स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र, कर्ण तथा मन के विषयों को जीतकर मैत्रीभाव से प्राणियों की रक्षा का प्रयत्न करना), (7) तप (भौतिक वस्तुओं में बढ़ती हुई इच्छाओं को रोककर ज्ञानाभ्यास, उपवास, सामायिक आदि नियमों की साधना करना), (8) त्याग- (जड़ वस्तुओं में बढ़ती हुई आसक्ति या ममता का परित्याग करना, आहारदान, ज्ञानदान, औषधिदान तथा अभयदान का उपयोग करना, समाज सेवा, लोकोपकारी संस्थाओं की एवं सभाओं की व्यवस्था करना, संरक्षण करना आदि), (9) आकिंचन्य- (भौतिक वस्तुओं से स्वार्थ बुद्धि को दूर करना, जड़ वस्तुओं से पृथक आत्मा में श्रद्धा रखना क्रोध आदि अन्तरंग (225 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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