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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "सम्पूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्रसामान्यतपोधनानाम् । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शांतिं भगवान् जिनेन्द्रः" ॥ (शांतिपाठ) अर्थात् - जन्म मरण आदि 18 दोषों से रहित परमात्मा की पूजन के प्रभाव से विनयी भक्तों को, नेताओं को, संरक्षकों को, त्यागी महात्माओं को, शिक्षकों को देश, राष्ट्र, नगर और न्यायी शासकों को सर्वथा शांति लाभ हो, किसी प्रकार का उपद्रव या अराजकता न फैले । यहाँ कृत्यों के मध्य में राष्ट्रीयता की प्रार्थना की गई है। अपरंच क्षेमं सर्व प्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल: काले काले च सम्यक वर्षतु मधवा व्योधयो यान्तु नाशम् दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां भास्म भूज्जीवलोके जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायी ।।। अर्थात- विश्व के अखिल मानवों का कल्याण हो, शासकवर्ग न्यायी, धर्मरत, शक्तिशाली हो, समय समय पर जलवृष्टि अनुकूल हो, जिससे राष्ट्रों में अन्न, जल शाकफल आदि की पूर्ति हो, किसी भी प्राणी को रोग न हो, यदि रोगी हो जावें तो वे स्वस्थ हों, अकाल-चोर डकैती- प्लेग-हैजा-मारी आदि रोग विश्व में कभी न फैले, सब प्राणियों को सुखप्रद तीर्थकर प्रणीत अहिंसा आदि धर्म का चक्र सदैव चलता रहे । किंच "कुर्वन्तु जगत: शांतिं वृषभाद्या: जिनेश्वरा: " ऋषभनाथ आदि 24 तीर्थकर जगत में शांति या विश्व प्रेम स्थापित करें। जिससे किसी प्रकार का उपद्रव युद्ध गृहयुद्ध आदि न हो। विधाय रक्षां परत: प्रजानां, राजा चिरं योऽ प्रतिमप्रताप: । व्यधात्पुरस्तात्स्वत एव शांति: मुनिर्दयामूर्तिरिवाध शांतिम् । (समन्तभद्राचार्य वहत्स्वयम्भूस्तोत्र-शान्तिनाथ स्तवन) अर्थात् - दया की साक्षात् मूर्ति, क्षत्रियराजपुत्र 16 वें तीर्थकर श्री शांतिनाथ ने पहिले राज्य सिंहासन पर आरुढ होकर चिरकाल तक सर्व प्रकार से प्रजा की रक्षा की और पश्चात् निज पौरुष से मोह-हिंसा आदि दुष्कर्मो को विनष्ट किया। निसन्देह सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ, 17 वें कुन्थु नाथ 18 वें अरहनाथ इन तीन महात्माओं ने भी अपने अपने जीवन काल में धर्मतीर्थ, शासन प्रणाली और कला सौदर्य का विश्व में असाधारण प्रचार किया। इसी कारण उक्त तीन अवतार , तीर्थकर, चक्रवती तथा कामदेव इन तीन तीन पदवियों के धारी हुए। ये पदवियां ही उक्त अवतारों के इस आदर्श को व्यक्त करती हैं कि उन्होंने धर्म और राष्ट्रनीति का सुयोग्य समन्वय उपस्थित किया था। उनके जीवनकाल की यह महती विशेषता थी। उक्त तीर्थकरत्रय द्वारा विश्वज्ञानलब्धि के पश्चात् अनेक राष्ट्रों और देश देशान्तरों में विहार कर धर्मतीर्थ और लोक सेवा का प्रचार किया गया। पुराणों में उनके विहार के क्षेत्रों का संक्षेप में उल्लेख किया गया। (199) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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