SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कृतित्व / हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ (2) अर्थशास्त्र उन सामान्य रीतियों का अध्ययन है जिनसे मनुष्य अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सहयोग करते हैं। (प्रो. बैवरिज अर्थशास्त्री) (3) अर्थशास्त्र आर्थिक कल्याण का अध्ययन है। (प्रो. पीगू अर्थशास्त्री) (अर्थशास्त्र के सिद्धान्त भाग 1, पृ. 5) ऊपरी कथित वैज्ञानिकों के अर्थशास्त्र के सिद्धान्त भौतिकवादी है, उनसे मानव का कल्याण पूर्ण तथा संभव नहीं है कारण कि उनसे मानव, अति धन संग्रह करता है, दूसरे मानवों के वैभव को देख स्पर्धा करता है, अतितृष्णा से सन्तोष (संतुष्टि) को धारण नहीं करता है। उन अर्थशास्त्रों में आध्यात्मिकता नहीं है और न अर्थ के परिमाण का कोई नियम है। जैसा कि परिमाण अर्थ पुरुषार्थ या परिग्रहपरिमाण व्रत में है । परन्तु कुछ ऐसे वैज्ञानिक अर्थशास्त्री भी हैं जिन्होंने अर्थ की सीमा, अनतिसंग्रह और सन्तोष (संतुष्टि ) गुण का महत्व अर्थशास्त्र की रूपरेखा में कहा है। तथाहि - "उन सब मानवी क्रियाओं का धन कमाने और व्यय करने से संबंधित रूपेण अर्थशास्त्र में अध्ययन किया जाता है, संक्षेप में अर्थशास्त्र धन से सम्बन्ध रखने वाली भावी क्रियाओं का अध्ययन करता है।" इस परिभाषा का स्पष्टीकरण करते हुए टिप्प्णी में कहा गया है कि - साधुओं, सन्यासियों, संयमी आदि व्यक्तियों पर यह कथन नहीं घटता, क्योंकि अर्थशास्त्र केवल साधारण व्यक्तियों की क्रियाओं का अध्ययन करता है। इस प्रकार के व्यक्ति साधारण श्रेणी से परे हैं। अत: अर्थशास्त्र महात्माओं की क्रिया का अध्ययन नहीं करता। उनकी साधना आध्यात्मिक होती है । (अर्थशास्त्र का परिचय भाग 1, पृ. 6, ए. एन. अग्रवाल) “पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों का कथन है कि अर्थशास्त्र से मनुष्य अपनी जितनी अधिक इच्छाओं की एवं आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा, उसको उतना ही अधिक सन्तोष प्राप्त होगा परन्तु प्रो. जे. के. मेहता (भारतीय विज्ञ) पाश्चात्य वैज्ञानिकों के इस मत से सहमत नहीं है। आपका कथन है कि अर्थशास्त्र का संबन्ध मनुष्य की बढ़ती हुई इच्छाओं और आवश्यकताओं की सन्तुष्टि से नहीं, किन्तु इनको कम करने से और अन्त में इनको समाप्त करने से है जिससे कि इच्छा रहित या आवश्यकता रहित जीवन की स्थिति उत्पन्न हो सके । (अर्थशास्त्र की रूपरेखा : आनन्द स्वरूप गर्ग : पृ. 3 ) प्रो. जे. के. मेहता का उक्त कथन ही भ. महावीर के अपरिग्रहवाद सिद्धान्त के अनुकूल है। उपसंहार भगवान महावीर ने लोक कल्याणार्थ न केवल आचारमार्ग अहिंसा का ही उपदेश दिया है, किन्तु अध्यात्मवाद, कर्मवाद, अनेकान्त ( स्याद्वाद) और अपरिग्रहवाद का मार्ग भी प्रशस्त किया है। अपरिग्रहवाद, समाजवाद, अर्थशास्त्र-पूंजीवाद - भौतिकवाद - मानव विज्ञान आदि सिद्धान्तों में अपरिग्रह वाद ही अधिक कल्याणकारी सिद्ध होता है। इस सिद्धान्त का आचरण करना मानव का कर्त्तव्य है । * Jain Education International 188 ܀ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy