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________________ व्यक्तित्व साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ हमें शीघ्र हाथ धोकर रूपया रखना पड़ते थे। यदि कभी बाजार कोई सब्जी फल लेने जाते थे तो हमसे रूपया मांगते थे। हमने कहा पिताजी रूपया अपने हाथ उठा लो अपना ही तो घर है, हम काम कर रहे हैं, तो कहने लगे कि हम रूपयों में हाथ नहीं लगाते, रूपया तुम्हारे भाग्य का है, हमारा नहीं, तो हमें उठकर रूपया देना पड़ते थे । यदि हम कभी अपने लिये आवश्यक चीजों को लेने बाजार जाते थे तो पिताजी की आज्ञा से रूपया लेते थे, एक बार पिताजी कहने लगे कि रूपया तुम्हारे ही पास तो रखा है, उठा के ले जाओं । पूछने की क्या आवश्यकता हैं ? हमने कहा पिताजी रूपया आपका है आप से बिना पूछे कैसे ले जा सकते है ? तो धीरे से हंसने लगे। घर में रखे रूपयों को न कभी पिताजी ने अपना कहा, न उसमें हाथ लगाया और न कभी उन रुपयों को हमने अपना कहा, क्योंकि कमाई तो पिताजी की थी। ऐसे ही घर का काम चलता रहता था। एक दिन पिताजी कहने लगे कि हमने तुम्हारे जीवन के लिए पर्याप्त रूपया रख दिया है, बस जीवन में अपनी धर्म साधना करना । जीवन में एक ही शब्द का उन्होंने हमें संकेत दिया, अधिक कुछ नहीं कहते थे कि यह रोने लगेगी। एक बार हमने भी सोचा (2-3 वर्ष पहले की बात) कि पिताजी को चिन्ता मुक्त कर देना चाहिये, बड़ा साहस करके कहा - पिताजी आप हमारी चिन्ता नहीं करना, हम तो कहीं भी आश्रम में या मुनि संघों में रह लेगें | आप निश्चिन्त होकर मोह छोकर अपनी धर्म साधना करो । जबकि अतरंग में हमें तो पिताजी के जाने को धक्का लगा ही रहता था, परन्तु उनको मोह रहित करके धर्म साधना कराना थी । इसलिये शब्दों में तो उनको निश्चिन्त कर दिया। कभी हम उनसे भविष्य के बारे में अधिक बात नहीं करते थे कि पिताजी को हमसे मोह न बना रहे और न पिताजी कभी इस विषय को उठाते थे, कि इसको भविष्य का दुख न हो जाये । पिताजी श्रावक के षड् आवश्यकों का पालन अच्छी तरह करते थे और हमें तथा सभी को शिक्षा देते थे कि ब्राह्म मुहूर्त में उठकर सामायिक तथा स्तोत्र पाठ करो। समय बड़ा कीमती है, अन्यथा समय चला जायेगा, हम कुछ नहीं कर पायेंगे। पिताजी ने अपने जीवन में तीन चांदी की प्रतिमायें एवं चौथी नव देवता की सफेद धातु की प्रतिमा विराजमान की है। पांचवी प्रतिमा की शाहपुर के गजरथ में प्रतिष्ठा कराना थी वह नहीं करा पाये, उसकी प्रतिष्ठा उनके जाने के बाद हुई । इन्होने अपने जीवन में एक सिद्धचक्र मंडल विधान भी रचाया था और भी अन्य प्रकार से दान करते रहते थे । सम्मेद शिखर जी की वन्दना में पिताजी ने तीर्थंकरों की टोंकों पर चांदी के कलशा चढ़ाये एवं प्रत्येक टोंक पर ध्वजा, श्रीफल, दीपक, चांदी की लोंग एवं 5 टोंकों पर मंगल कलश स्थापित किये। इस प्रकार बहुत भाव के साथ उमर अनंत सिद्धों को नमस्कार करते हुये नीचे टोंकों पर अर्घ समर्पण करते हुये भाव भानी बन्दना की। भारत के सभी तीर्थो की एवं सम्मेद शिखर जी की कई बार वन्दना की । कषायों की मंदता होना एवं जीवन में सभी का बहुत उपकार करना, उनके जीवन का पुरूषार्थ था। उनसे कोई गलती हो जाये तो हाथ जोड़कर गलती की क्षमा मांगते थे । संस्कृत भाषा का ज्ञान होने से स्तोत्रों का पाठ अर्थ लगाकर ही करते थे। कहते थे कि बिना अर्थ Jain Education International 129 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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