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________________ व्यक्तित्व साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ व्यायाम अवश्य करें। इससे आलस्य दूर होता है, शरीर स्वस्थ रहता है । अत: आलस्य त्यागकर प्रभु वंदना करो और फिर थोड़ा व्यायाम करो पढ़ाई में मन लगेगा। इस प्रकार कई बहुमूल्य बातें पंडित जी विद्यार्थियों को लगभग नित्य समझाते थे। उनकी यह बाते जो मानते गये वे आज निश्चित ही उच्चता के शिखर को छु रहे हैं। आपको अपने विद्यार्थियों से बहुत ही वात्सल्य था आपने अगर विद्यार्थियों को सजा भी दी तो वात्सल्य के साथ कई बार उस सजा का कारण उनने बताया है जिससे वे वह गलती पुन: न करें। आपके जितने शिष्य भी थे वे सब आपके ऋणी है जो आपने उन्हें ज्ञान रत्न देकर मनुष्य बनाया , आपके ही कारण अज्ञानी पशु समान व्यक्ति भी विद्वतता को पाकर अपना अच्छा बुरा सोचने लगे अन्यथा उनका जीवन अंधकार मय ही रहता है। आपका जैसा नाम था वैसे आपके भीतर गुण थे जिनने आपके नाम को सार्थकता दी आपका पूरा नाम पंडित दयाचंद जी था, साहित्याचार्य, आप अपनी अटूट ज्ञान पिपासा से बन गये। तदोपरान्त दो तीन ग्रंथों के शोध से आपको पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त हुई और आप पं. डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य बन गये आपने अपने जीवन में जिनवाणी की जो आराधना की है उसका प्रतिफल ही है जो लाखों जनों के हृदय में आप बसे हुए हैं। आपके द्वारा जो शिक्षा प्रदान की गई उसके प्रभाव से कुछ ऐसी हस्तियाँ भी जन्मी जिन्होंने पंडित जी की मेहनत को सार्थक कर दिया, जिनमें मुख्यता आचार्य 108 सुनीलसागर जी है जिन्होंने आचार्य श्री 108 आदिसागर जी अंकलीकर के तृतीय पट्टाचार्य 108 श्री सन्मतिसागर जी से मुनि दीक्षा लेकर तपोसाधना व ज्ञानाराधना करते हुये लगभग दस वर्ष बाद 25 जनवरी 2007 को औरंगाबाद में अपने गुरुवर के कर कमलों से आचार्य पद प्राप्त किया। उन्हें यह पद भार इसलिए दिया गया है कि वे भी अब स्व कल्याण के साथ-साथ पर कल्याण पर भी ध्यान दें। आचार्य श्री सुनीलसागर जी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी है। आपकी विभिन्न भाषाओं पर पकड़ है, प्राकृत, पाली, अपशृंश, संस्कृत के तो आप उत्कृष्ट विद्वान हैं। आपके प्रत्येक विधा में कई कला कृतियां है जिनमें से अञ्जप्पसारों, तत्वार्थ सूत्र, आत्मसारशतक, णीदीसंग्रहों, बसुनंदी श्रावकाचार, जैनाचार विज्ञान, जैन इतिहास, मेरी सौ कवितायें, पथिक, दूसरा महावीर आदि पैंतीस कृतियां हैं जो अत्यंत ज्ञानोपयोगी और समसामायिक है जो आपकी लेखनी से निश्रित होकर ज्ञान प्रकाश कर रही है। इसके उपरांत मुनि श्री 108 विभव सागर जी महाराज यह भी उच्च कोठि के विद्वान साधु हैं जिन्होंने पंडित जी से अध्ययन किया यह आचार्य श्री 108 विरागसागर जी से दीक्षित है। इनके बाद मुनि श्री मार्दवसागर जी महाराज जो आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के संघस्थ है इसी संघ में श्री पदमसागर जी मुनि महाराज भी पंडित जी के पूर्व शिष्य रहे हैं। आचार्य श्री सन्मतिसागर जी ज्ञानभूषण जी के शिष्य श्री क्षुल्लक 105 ध्यानभूषण जी भी आपके पूर्व शिष्य थे। पंडित जी एक महान विद्वान रत्न थे, जिन्होंने न जाने कितने, पंडित कितने साधु, कितने लेखक , कितने प्रवचनकार, ज्ञान पयोनिधि से समाज को दिये हैं। ऐसे पं. डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य जी को मेरा शत्-शत् प्रणाम । -113 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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