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________________ - - व्यक्तित्व साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मेरे आदर्श मार्गदर्शक अग्रज सरस्वती पुत्र पं. दयाचंद साहित्याचार्य पं. अमर चंद शास्त्री प्रतिष्ठाचार्य शाहपुर (लघु भ्राता) आप बहुत धर्मानुरागी सरल स्वभावी मंदकषायी मृदु भाषी साहित्य की आचार्य पदवी से विभूषित थे आपका समय धार्मिक कार्यो में ही व्यतीत होता था। जीवन भर ज्ञान की वृद्धि करते रहे । व्यापार की ओर उनका लक्ष्य ही नहीं था। उनका कहना था कि व्यापार में लग जाने पर पढ़ा हुआ ज्ञान भी विस्मृत हो जाता है। हम अपना धर्म और ज्ञान में पूरा समय खर्च करेंगे। उससे ज्ञान की वृद्धि होती रहेगी। आत्मा का कल्याण भी ज्ञान के माध्यम से ही होता है। ठीक है । रत्नत्रय में ज्ञान मध्य में ही रखा है। यह दोनों तरफ काम करता है सम्यक् दर्शन को भी दृढ़ करता है और चारित्र को भी दृढ़ करता है । अत: सम्यक् दर्शन होने पर रत्नत्रय की साधना करना श्रेयस्कर है। सबसे प्रधान धन संतोष धन होता है। जिसको आपने जीवन भर धारण किया है। अनावश्यक सामग्री का संग्रह नहीं किया। जो प्राप्त हो उसमें ही प्रसन्न रहते थे। किसी से अपने मुख से अपशब्दों का प्रयोग नहीं किया चाहे कितनी भी प्रति कूलता क्यों न हो । यदि दूसरे ने खोटे शब्दों का प्रयोग किया तो सुन लेते थे। अपनी लघुता दूसरे की प्रसंशा करते थे यह गुण सभी में नहीं होता। जीवन भर अध्ययन व अध्यापन कार्य किया है। उस ज्ञान से ही आपने “जैन पूजा काव्य" शोध प्रबंध की रचना की है। जिसमें अनेक संस्कृत प्राकृत पूजन का वर्णन अलंकार छन्दों के साथ किया गया है । जिसका विमोचन भी आचार्य श्री विद्यासागर जी के सानिध्य में भाग्योदय तीर्थ सागर में हुआ था। आपको गुणीजनों के प्रति बहुत स्नेह व वात्सल्य रहता था। आपका आचरण व्रतीजनों जैसा था। आपकी सबसे छोटी पुत्री ब्र. किरण ने जीवन भर सहारा दिया। छाया की तरह रही इसी कारण उनका जीवन धर्ममय सुख शांति युक्त व्यतीत हुआ। आप विद्वत्परिषद तथा शास्त्री परिषद के स्थाई सदस्य थे। राष्ट्रीय स्तर के सरस्वती पुत्र थे। अब मुनष्य पर्याय से ही उनका प्रस्थान हो गया जो विद्वानों को तथा पूरी जैन समाज को अविस्मरणीय क्षति है। हमें उनसे बहुत मार्ग दर्शन मिलता रहता था। आत्मीय स्नेह मिलता था। इस अंतरंग दुख को सहन कर उनके प्रति हृदय से श्रद्धांजलि समर्पित करते हैं और भावना करते हैं। कि उनकी आत्मा मोक्ष के प्रति अग्रसर बनी रहे । दिवंगत अग्रज को आत्मीय आदरांजलि प्रस्तुत हैं। उनके दिवंगत जीवन से यही शिक्षा मिलती है कि - "आयु कटती रात दिन, ज्यों करोत ते काठ हित अपना जल्दी करो, पड़ा रहेगा ठाठ " -80 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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