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________________ जैन धर्म दर्शन में सम्यग्ज्ञानः स्वरूप और महत्व 349 द्रव्य का जितना सूक्ष्म अंश जाना जाता है उससे अनन्त गुणा अधिक सूक्ष्म अंश मनःपर्यय के द्वारा जाना जाता है। अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों को हो सकता है किन्तु मनःपर्यय ज्ञान मनुष्यगति में, वह भी संयत जीवों को ही होता है। इस पंचम काल में अवधिज्ञान का होना तो यहाँ सम्भव भी है, किन्तु मनःपर्यय ज्ञान होना दुर्लभ है। अवधि और मनःपर्यय की मोक्षमार्ग में अनिवार्यता नहीं है, जबकि मति और श्रुतज्ञान अनिवार्य हैं। ५. केवलज्ञान समस्त पदार्थों की त्रिकालवर्ती पर्यायों को युगपत् जानने वाला केवलज्ञान है। इसमें लोक–अलोक समस्त रूप में प्रतिबिम्बित होते हैं। वस्तुतः आत्मा ज्ञान-स्वभाव है, अतः आत्मा के समस्त आवरणों के समाप्त हो जाने पर अपने स्वभाव रूप हो जाता है और समस्त पदार्थों की त्रिकालवर्ती पर्यायों को एक साथ जानने लगता है। इस संबंध मे आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्खपाहुड (गाथा ३०) में कहा है ___ सब्बासवणिरोहेण कम्म खवदि संचिदं। जोयत्थो जाणए जोइ जिणदेवेण भासियं।। अर्थात् सब प्रकार के आसवों का निरोध होने से पूर्व संचित समस्त कर्म नष्ट हो जाने हैं तथा ध्यान-निमग्न योगी 'केवलज्ञान' को उत्पन्न करता है-ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। प्रवचनसार (गाथा ३४) में वे कहते हैं आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वमूदाणि। देवादिओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू।। अर्थात् साधु (मुनि) का आगम ही चक्षु है। अर्थात् मुनि आगमरूपी नेत्रों के धारक हैं, संसार के समस्त प्राणी इन्द्रियरूपी चक्षुओं से सहित हैं। देवादि अवधिज्ञानरूपी नेत्रों से युक्त हैं और अष्टकर्म रहित सिद्ध भगवान् सब ओर से चक्षु वाले अर्थात् केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को युगपत् जानने वाले हैं। क्योंकि यह केवलज्ञान ऐसे सहज ही उत्पन्न नहीं होता, अपितु तत्त्वार्थसूत्र (१०/१) के अनुसार 'मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्' अर्थात् मोहनीय कर्म का क्षय होने से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय कर्म का क्षय होने पर केवलज्ञान प्रकट होता है। वस्तुतः इन चार प्रतिबन्धक कर्मों में से पहले मोह का क्षय होता है और फिर अन्तर्मुहूर्त में ज्ञानवरण, दर्शनावरण और अन्तराय-इन तीन कमों का भी क्षय हो जाता है। क्योंकि मोह सबसे अधिक बलवान है, अतः उसके क्षय के बाद ही अन्य कर्मों का क्षय संभव है। इन सबके क्षय होते ही केवलज्ञान प्रकट हो जाता है और वह जीव केवली अर्थात् सर्वज्ञ बन जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में कहा है ___ अत्थं अक्खणिवदिदं ईहापुब्वेहिं जे विजाणति। तेसिं परोक्खभूदं णादुमसक्क ति पण्णत्तं।। ४० ।। ___ अर्थात् इन्द्रिय ज्ञान बहुत सीमित होता है, क्योंकि जो इन्द्रिय गोचर पदार्थ को अवग्रह, ईहा आदि के द्वारा जानते हैं, उनके लिए परोक्षभूत अर्थात् जिसका अस्तित्व बीत गया अथवा जिसका अस्तित्व काल अभी उपस्थित नहीं हुआ, ऐसे अतीत, अनागत पदार्थ को जानना संभव नहीं हो सकता और जब अनुत्पन्न तथा नष्ट पर्याय जिस ज्ञान में प्रत्यक्ष न हो तो उस ज्ञान को दिव्य भी नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत केवलज्ञान में यह दिव्यता है कि वह अनन्त द्रव्यों की (अतीत और अनागत) समस्त पर्यायों को सम्पूर्णता एक ही समय प्रत्यक्ष जानता है। पं. दौलतराम जी ने 'छहढाला' की निम्नलिखित पंक्तियों में इसी बात को इस रूप में कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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