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________________ 350 Sumati-Jnana सकल द्रव्य के गुण अनन्त पर्याय अनंता। जाने एक काल प्रकट केवलि भगवंता।। प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं ण परिणमदि ण गेण्हदि उपज्जदि णेव तेसु अट्ठसु। जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो।। || गेण्हदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं। पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं।। ३।। अर्थात् केवलज्ञानी आत्मा (सर्वज्ञ) पदार्थों को जानता हुआ भी उस रूप में परिणमित नहीं होता, इन्हें ग्रहण नहीं करता और उनके पदार्थों के रूप में उत्पन्न नहीं होता, इसलिए आत्मा के ज्ञप्ति क्रिया का सद्भाव होने पर भी वास्तव में क्रिया फलभूतं बंध सिद्ध होने पर उन्हें अबन्धक कहा गया है। क्योंकि केवली भगवान ज्ञेय पदार्थों को न ग्रहण करते हैं, न त्याग करते हैं और उन पदार्थों के रूप में परिणमित नहीं होते, फिर भी निरवशेष रूप से सबको अर्थात् सम्पूर्ण आत्मा एवं सभी ज्ञेयों को सभी आत्म प्रदेशों से देखते और जानते हैं। वस्तुतः पदार्थ न ज्ञान के पास आते है, न ज्ञान पदार्थ के पास आता है। जैसे दर्पण के सामने जो भी पदार्थ हों वे एक-दूसरे के पास गये बिना भी उसमें प्रतिबिम्बित होते हैं, उसी तरह विश्व में जितने भी पदार्थ हैं, वे सब ज्ञान में प्रतिबिम्बित होते हैं। इस तरह जैन धर्म-दर्शन में ज्ञान की स्वरूप-विवेचना अति सूक्ष्म और गहन रूप में प्रस्तुत की गई है। इसीलिए रत्नत्रय में सम्यग्ज्ञान को अति महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि ज्ञानरूपी प्रकाश ही ऐसा उत्कृष्ट प्रकाश है जिसका हवा आदि कोई भी पदार्थ प्रतिघात (विनाश) नहीं कर सकता। सूर्य का प्रकाश तो तीव्र होते हुए भी अल्पक्षेत्र को ही प्रकाशित करता है किन्तु यह ज्ञान-प्रदीप समस्त जगत् को प्रकाशित करता है अर्थात् समस्त वस्तुओं में व्याप्त इस सम्यक् ज्ञान के समान अन्य कोई प्रकाश नहीं है। इसीलिए इसे द्रव्य स्वभाव का प्रकाशक कहा गया है। सम्यग्ज्ञान से तत्त्वज्ञान, चित्त का निरोध तथा आत्मविशुद्धि प्राप्त होती है। ऐसे ही ज्ञान से जीव राग से विमुख तथा श्रेय में अनुरक्त होकर मैत्रीभाव से प्रभावित होता है। भगवती आराधना (गाथा ७७१) में कहा है कि ज्ञानरूपी प्रकाश के बिना मोक्ष का उपायभूत चारित्र, तप, संयम आदि की प्राप्ति की इच्छा करना व्यर्थ है। इस तरह यह सम्यग्ज्ञान संसारी जीवों का अमृतरूप जल से तृप्त करने वाला होता है। इसीलिए किसी भी साधक के लिए सम्यग्दर्शन की तरह सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक है, तभी उसका चारित्र सम्यकचारित्र की कोटि में आ पायेगा और ऐसा ही रत्नत्रय मोक्षमार्ग को प्रशस्त करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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