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________________ 348 Sumati-Jnana आचारांग, सूत्रकृतांग आदि बारह अंग आगम के रूप में इस श्रुतज्ञान के भी बारह भेद हैं। उत्पादपूर्व, अग्रायणी, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्ति प्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद, कल्याणानुवाद, प्राणवायप्रवाद, क्रियाविशाल तथा लोकबिन्दुसारपूर्व-इन चौदह पूर्वो के रूप में इस श्रुतज्ञान के चौदह भेद भी हैं। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र में कहा है-'श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम' (१/२०) अर्थात् यह श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है तथा इसके दो, द्वादश एवं अनेक भेद होते हैं। इसलिए सम्यग्ज्ञान के लिए आगमों का ज्ञान आवश्यक है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि। अविजाणतो अत्थे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू ।। प्रवचनसार ||३|| अर्थात् आगम से हीन मुनि न आत्मा को जानता है और न आत्मा से मिन्न शरीरादि पर-पदार्थों को। स्व–पर पदार्थों को नहीं जानने वाला भिक्षु कर्मों का क्षय कैसे कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता है। क्योंकि आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में आगे कहते हैं जं अण्णाणी कम्म खवेइ सवसयसहस्सकोडीहिं। तं णाणी तिहिं गुतो खवेइ उस्सासमेत्तेण ।।३८ // अर्थात् अज्ञानी जीव जिस कर्म को लाखों-करोड़ों पर्यायों द्वारा क्षपित करता है, मन-वचन-काय रूप तीन गुप्तियों से गुप्त आत्माज्ञानी जीव उस कर्म को उच्छवासमात्र में क्षपित कर देता है। इसलिए सम्यक्ज्ञान का बहुत ही महत्व है। मन सहित संज्ञी या समनस्क जीव अक्षर सुनकर वाचक के द्वारा वाच्य का जो ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह अक्षरात्मक श्रुतज्ञात है तथा बिना अक्षरों के द्वारा अन्य पदार्थ का बोध होना अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है। यह एकेन्द्रिय आदि सभी जीवों को होता है। श्रुत का मनन या चिन्तनात्मक जितना भी ज्ञान होता है, वह सब श्रुतज्ञान के अंतर्गत है। यह रूपी-अरूपी दोनों प्रकार के पदार्थों को जान सकता है। ३.अवधिज्ञान भूत, भविष्यत्काल की सीमित बातों को तथा दूर क्षेत्र की परिमित रूपी वस्तुओं को जानने वाला अवधिज्ञान होता है। अतः देशान्तरित, कालान्तरित और सूक्ष्म पदार्थों के द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव को मर्यादा से जानने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। यह अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होता है। ४. मन:पर्यय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिए हुए इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही दूसरे के मन की अवस्थाओं (पर्यायों) का ज्ञान मनःपर्यय है। सामान्य रूप में यह दूसरे के मन की बात को जानने वाला ज्ञान होता है। वस्तुतः चिन्तक जैसा सोचता है उसके अनुरूप पदगल द्रव्यों की आकृतियों (पर्याये) बन जाती हैं और इनके जानने का कार्य मनःपर्यय करता है। इसके लिए वह सर्वप्रथम मतिज्ञान द्वारा दूसरे के मानस को ग्रहण करता है, उसके बाद मनःपर्यय ज्ञान की अपने विषय में प्रवृत्ति होती है। इसलिए कहा है-'परकीयमनसि व्यवस्थितोऽर्थः मनः, तत् पर्येति, गच्छति जानातीति मनःपर्यय अर्थात् दूसरे के मन में स्थित अर्थ को 'मन' कहते हैं और उस मन को जो जानता है, उसे मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। वस्तुतः अवधि और मनःपर्यय ये दोनों आत्मा से होते हैं। इनके लिए इन्द्रिय और मन की सहायता आवश्यक नहीं है। ये दोनों रूपी द्रव्यों के ज्ञान तक ही सीमित हैं अतः इन्हें अपूर्ण प्रत्यक्ष कहा जाता है। अवधिज्ञान के द्वारा रूपी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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