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________________ जैन धर्म दर्शन में सम्यग्ज्ञानः स्वरूप और महत्व 347 अमिनिबोध या अनुमान कहा है। मतिज्ञान के भेद ___ अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये मतिज्ञान के चार भेद हैं। अ.अवग्रह विषय (ज्ञेय वस्तु) और विषयी (जानने वाले) का योम सामीप्य (सन्निपात अथवा संबंध) होने पर सर्वप्रथम दर्शन होता है। यह दर्शन वस्तु की सामान्य सत्ता का प्रतिमास करता है। इस दर्शन के पश्चात् जो अर्थ ग्रहण होता है, वह अवग्रह कहलाया है। इस तरह नाम, जाति आदि की विशेष कल्पना से रहित सामान्य मात्र का ज्ञान 'अवग्रह' कहलाता है। जैसे-गाढ़ अन्धकार में कोई वस्तु छू जाने पर यह ज्ञान होना कि यह कुछ है। अवग्रह में यह स्पष्ट मालूम नहीं होता कि किस चीज का स्पर्श हुआ है, इसलिए अव्यक्त ज्ञान अवग्रह है। ब.ईहा अवग्रह के द्वारा ग्रहण सामान्य विषय को विशेष रूप से निश्चित करने के लिए जो विचारणा होती है, वह ईहा है। स. अवाय ईहा के द्वारा जाने हुए पदार्थ का विशेष निर्णय करने को अवाय कहते हैं। इसमें विशेष चिह्न देखने से वस्तु का निर्णय हो जाता है कि वह अमुक वस्तु है। द.धारणा अवाय ही जब दृढ़तम अवस्था में परिणत हो जाता है, तब उसे धारणा कहते हैं। क्योंकि इसमें व्यक्ति अवाय से निश्चय किये हुए पदार्थ को कालान्तर में भूलता नहीं है। धारण को संस्कार भी कह सकते हैं। ___ इस प्रकार अवग्रह में प्राथमिक ज्ञान, ईहा में विचारणा, अवाय में निश्चय तथा धारणा में इन्द्रियज्ञान की स्थितिशीलता (संस्कार रूप स्मृति) होती है। ये अवग्रह आदि मतिज्ञान चारों द्रव्य की पर्याय को ग्रहण करते हैं, सम्पूर्ण द्रव्य को नहीं। क्योंकि इन्द्रिय और मन का मुख्य विषय पर्याय ही है। इनकी यह भी विशेषता है कि ये क्षणभर में भी हो सकते है और अनेक या बहुत काल के बाद भी हो सकते हैं। २. श्रुतज्ञान मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ को मन के द्वारा उत्तरोत्तर विशेषताओं सहित जानने वाला श्रुतज्ञान है। मतिज्ञान पूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है। इन दोनों का कार्य-कारण भाव संबंध है। मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है। अतः मति और श्रुत ये दोनों सहभावी ज्ञान हैं, एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ते। ये दोनों प्रत्येक संसारी जीव के होते हैं। ___ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान का बहिरंग कारण है। अंतरंग कारण तो श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम है क्योंकि किसी विषय का मतिज्ञान हो जाने पर भी यदि क्षयोपशम न हो तो उस विषय का श्रुतज्ञान नहीं हो सकता। फिर भी दोनों में इन्द्रिय और मन की अपेक्षा समान होने पर भी मति की अपेक्षा श्रुत का विषय अधिक है और स्पष्टता भी अधिक है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में यही अंतर है कि मतिज्ञान अनुभव करता है और श्रुतज्ञान विचार करता है। मतिज्ञान जिव्हा पर रखी हुई चीज के ठंडे, मीठे, खट्टे इत्यादि रूप उसके गुणों आदि का केवल अनुभव करता है और श्रुतज्ञान विचार करता और कहता है कि यह ठंडा है, यह गरम है। श्रुतज्ञान का कार्य शब्द के द्वारा उसके वाच्य अर्थ को जानना और शब्द के द्वारा ज्ञात अर्थ को पुनः शब्द के द्वारा प्रतिपादित करना है। इसीलिए इसके अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक रूप एवं अंगबाला तथा अंगप्रविष्ट रूप दो भेद हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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