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________________ समसामयिक समस्याओं के संदर्भ में प्राचीन जैन संस्कृति की प्रासंगिकता 317 को भी माना जा सकता है। आर्थिक असमानता परिगृही प्रवृत्ति के कारण उत्पन्न होती है। अनावश्यक व अनुचित संग्रह समाज को अस्त-व्यस्त करने वाला है। परिग्रह के सब साधन सामाजिक जीवन में कटुता, घृणा और शोषण को जन्म देते है और अंतत: यह हिंसा का कारण बन जाते हैं। भौतिकता व आधनिकता की अंधी दौड में परम्प परम्पराएँ व संस्कार संस्थाएँ टूट रही हैं और व्यक्ति की व्यक्तिगत सोच स्वच्छंद छलांग लगाना चाहती है, जिससे परिवार व समाज में सद्भाव की समस्या उत्पन्न हो रही है। समन्वय व सद्भाव के न होने से परस्पर संबंध हिसा रूप ले लेते हैं। इस प्रकार की हिंसा के निवारण के लिए अनेकान्तवाद व स्याद्वाद् प्रासंगिक हैं। जो दूसरे के विचार व भावना को सम्मान देते है। मनुष्य तो सामाजिक प्राणी ही है और समाज तब तक नहीं बन सकता जब तक व्यक्तियों में हिंसात्मक वृत्ति का परित्याग न हो। यही नही समाज बनने के लिए यह भी आवश्यक है कि व्यक्तियों में परस्पर सहयोग की भावना हो। प्रमाणसागर जी ने लिखा है कि जिस सह-अस्तित्व की चर्चा आज जोर-शोर से की जा रही है वह सह अस्तित्व भाव हजारों वर्ष पहले से ही जैन धर्म के अहिंसामूलक सिद्धांत से जुड़ा हुआ है। जिओ और जीने दो' एवं "अहिंसा परमो धर्म" का जीवनदर्शन जैन धर्म का प्रमुख उद्घोष है जैन धर्म के अनुसार समाज में शांति बनाए रखने के लिए आत्म अनुशासन की विशेष आवश्यकता होती है वह अनुशासन भौतिक जागृति से ही आ सकता है। जैन दर्शन का अणुव्रत, सत्य, अस्तेय, अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य समाज में नैतिक जागृति के महान स्तम्भ है। जैन धर्म एक वैज्ञानिक धर्म है। जैन धर्म में मुख्य रूप से आत्मोन्नति के उपायों पर विचार किया गया है लेकिन उसके सिद्धांत मानव समाज के लिए समान रूप से उपयोगी है। जैन धार्मिक साहित्य अथाह सागर है जिसमें अनंत मोती विद्यमान है। जैन धर्म के सिद्धान्तों का समसामयिक समस्याओं के सन्दर्भ में अनुसंधान से अनेक समस्याओं के समाधान प्रस्तुत हो सकेगें जो विश्व शांति स्थापना में सहायक होगें। संदर्भ ग्रन्थ १. तत्वार्थ सूत्र, ६/७ २. तीर्थकर, पत्रिका, संपादक-डॉ. नेमिचंद, सितम्बर-अक्टूबर १६५७, पृ. १३५/ ३. तत्वार्थ सूत्र, ६/२८/ ४. तीर्थकर, पूर्वोक्त, पृ. १३६ । १. भगवती आराधना, गाथा १३५ व १३६/ ६. तत्वार्थ सूत्र, ६/२० ७. ज्ञान सागर शाकाहार सर्वोत्तम आहार, संस्कृति संरक्षण संस्थान, दिल्ली, २००१, पृ. ४/ ८. प्रवचनसार ३/७/ ६ स्यावाद मंजरी, गाथा २२॥ १०. प्रमाणसागर जैन धर्म और दर्शन, जबलपुर १६६८ पृ. ३१८/ ११. तत्वार्थ सूत्र, ७/991 १२. तत्वार्थ सूत्र, सम्पादक-मोहन लाल शास्त्री, जबलपुर १६५३. पृ. १४७/ १३. फूलचन्द्र शास्त्री, वर्ण, जाति एवं धर्म, वाराणसी, १६६३. पृ. ३१४/ १४. हरिवंश पुराण,७/१००-१४५/. ११. पंचास्तिकाय, गाथा २२॥ १६. अखण्ड ज्योति पत्रिका, सितम्बर १६६७, पृ. ११ ॥ १७. देशभूषण महाराज, भगवान महावीर और उनका तत्व दर्शन, अखिल भारत वर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत परिषद, १६७४, पृ. २६६/ १६. संस्कार-सागर इन्दौर, नवम्बर २००० पृ. १३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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