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________________ 316 Sumati-Jñāna पशु व पक्षियों को ईश्वर से संबंधित कर पूजनीय माना जाता है वहीं अहिंसा मूलक जैन धर्म में अग्नि, वायु, पृथ्वी, जल व वनस्पति में जीव तत्व स्वीकार किया है।" बारवीक फाल्स ने 'डीप इकालॉजी' नामक ग्रन्थ में उल्लेख किया है कि संरक्षण की अवधारणा व्यवहारिक तथ्यों के साथ सम्पूर्ण मन व भावना से करना चाहिए। पर्यावरण संरक्षण के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अन्य जीवों के प्रति सहानुभूति पूर्वक विचार रखे।" अन्य जीवों के प्रति सहानुभूतिपूर्वक विचार अहिंसामयी जैनधर्म को आत्मसात करने से ही संभव है। जैन धर्म का अहिंसा परमो धर्मः एवं परस्परोपग्रहो जीवानाम सूक्त प्रकृति के प्रत्येक तत्व को न केवल सुरक्षित रखने बल्कि परस्पर सहयोग से संरक्षण का आह्वान करता है। अहिंसा के अभाव में पर्यावरण की सुरक्षा, संचालन व संवर्द्धन संभव ही नहीं है। जैन धर्म का अपरिगृह, त्यागधर्म व भोगोपभोग परिमाणव्रत पर्यावरण संतुलन के लिए अत्यंत उपयोगी है जिसके अनुसार मनुष्य की भोग प्रवृत्ति पर नियंत्रण आवश्यक बताया गया है। मनुष्य को अपने भोग-उपभोग की प्रवृत्ति सीमित करना चाहिए। जितना आवश्यक उसी के अनुसार भोग करना चाहिए । प्रकृति का दोहन आवश्यकतानुसार ही होना चाहिए । जैन धर्म का अपरिग्रह सिद्धांत केवल आध्यात्मिक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि सामाजिक आर्थिक व पर्यावरणीय संतुलन के लिए भी आवश्यक है। प्रकृति मानव के लिए है, इसकी गलत व्याख्या करके उसका अनियंत्रित ढंग से उपभोग किया जा रहा है। प्रकृति का आवश्यकता से अधिक, असंतुलित व अनुचित दोहन विनाशकारी है। विज्ञान की आधुनिक शाखा "डीप इकालॉजी' नैतिकता व मर्यादा की सीमा रेखा खीचते हुए ऐसा जीवन जीने का आग्रह करती है जिससे सृष्टि के किसी जीव या प्रकृति का शोषण संहार न हो सके और प्राकृतिक संतुलन बना रहे। जैन धर्म में तो प्रकृति के विशिष्ट तत्वों को भगवान के लक्षणों में शामिल किया गया है। तीर्थकरों की माता के सोलह स्वप्नों में प्रकृति के तत्व सम्मिलित है, तीर्थकरों के चिन्हों में प्रकृति व पर्यावरणीय तत्वों को महत्व दिया गया है। सामाजिक पर्यावरण की दृष्टि से तो जैन धर्म के सिद्धांत अत्यंत विशिष्ट हैं जब तक व्यक्ति से व्यक्ति के संबंध मधुर नहीं होगे तब तक पर्यावरण की समस्या बनी रहेगी। अनेकांतवाद स्यादवाद, पाँच व्रतों का अतिचार सहित पालन, दस धर्म एवं समता दर्शन से "सोशल इकॉजाजी" के लक्षण प्राप्त किए जा सकते हैं। जैन धर्म के सिद्धान्तों से पर्यावरण को न केवल सुरक्षित रखा जा सकता बल्कि उसका सम्वर्द्धन भी किया जा सकता है। आतंकवाद एवं हिंसा संबंधी समस्याएँ वर्तमान में आतंकवाद एवं हिंसा का दौर बढ़ता ही जा रहा है। हिंसात्मक गतिविधियों की रोकथाम के सन्दर्भ में जैन सिद्धांत अत्यंत उपयोगी हैं। हिंसा को रोकने के लिए अहिंसा सिद्धांत का पालन अपरिहार्य है। देश व विश्व शांति हेतु अहिंसा अचूक उपाय है। सहस्त्राब्दी विश्व शांति सम्मेलन जो संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा न्यूयार्क में आयोजित किया गया, उसमें इन्दु जैन ने अपने भाषण में कहा कि अहिंसा का अर्थ हिंसा और भय की समाप्ति तथा सम्पूर्ण मानवता को प्रेम से आबद्ध कर लेना है। अहिंसा का अर्थ है जाति, रंग, वर्ण, धर्म, लिंग, बिरादरी, समुदाय यहाँ तक कि प्राणी जगत की विभिन्न जातियों की भेद सीमाओं को पार कर दूसरों तक पहुँचना है। जैन सिद्धांत कहते है कि सभी आत्माएँ स्वतंत्र है और समान स्थिति में हैं। अतः मानव ही नहीं सभी जीवभाव के प्रति समता विचारों में हो और आचरण के प्रत्येक चरण में हो । यदि समता दर्शन अमल में हो तो जातिवाद, क्षेत्रीयवाद, वर्ग संघर्ष एवं अलगाव जैसी समस्याएँ उत्पन्न नहीं होगी। वर्तमान में जातिवाद वर्ग संघर्ष व अलगावाद से ही आतंकवाद, नस्लवाद की हिंसात्मक घटनाएँ हो रही हैं। समस्त प्राणियों के प्रति दयालु होना, समता भाव रखना ईर्ष्या, घृणादि का त्याग कर विश्व बन्धुत्व की भावना को अपनाना अहिंसा है। ऐसी अहिंसा से ही हिंसा को जीता जा सकता है। जैन धर्म में सत्य, अचार्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह यह अहिंसा के लिए ही व्रत बनाए गए हैं। हिंसात्मक गतिविधियों का एक अन्य कारण अर्थाभाव एवं आर्थिक असमानता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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