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________________ वर्ण एवं जाति विषयक जैन सिद्धांत प्रो. एम. प्रसाद एवं डॉ. जिनेन्द्र जैन जैन सैद्धान्तिक ग्रन्थों में सामाजिक व्यवस्था संबंधी मन्तव्यों का वर्णन नहीं है। मूल रूप से जैन धर्म वर्ण व्यवस्था तथा उसके आधार पर सामाजिक व्यवस्था को स्वीकार नहीं करता है। सैद्धान्तिक ग्रन्थों में वर्ण और जाति शब्द नाम कर्म के प्रभेदों में आये हैं। जिस कर्म के उदय से शरीर में वर्ण (रूप) होता है, उसे वर्ण नामकर्म कहते हैं। जिसके पाँच भेद हैं - नील, शुक्ल, कृष्ण, रक्त और पीत। जिस कर्म के उदय से अनेक प्राणियों में अविरोधी समान अवस्था प्राप्त होती है, उसे जाति नामकर्म कहते हैं। जाति नामकर्म से एकेन्द्रिय, द्विन्द्रिय, चतुरिन्द्र और पन्चेद्रिय जाति में जन्म होता है। पन्चेद्रिय में मनुष्य एवं पशु होते हैं। जैन दर्शन में जाति की परिभाषा के अनुसार मनुष्य और पशु में भेद नहीं होता है क्योंकि स्पर्श, रसना, घाण, चक्षु और श्रोत्र यह मनुष्य के साथ-साथ पशु की भी इन्द्रियाँ हैं। जैन दर्शन जाति की दृष्टि से मनुष्य और पशु को एक मानता है। जैन साहित्य के प्रारंभिक एवं उत्तरकालीन दार्शनिक व पौराणिक ग्रन्थों में आर्य एवं अनार्य शब्दों का मनुष्यों के भेद के रूप में उल्लेख मिलता है। यह भेद सांस्कृतिक एवं गुणात्मक दृष्टि से विवेचित है। उमास्वामी ने तत्वार्थ सूत्र (द्वितीय शती ई.) में आर्यों एवं अनार्यों के संबंध में लिखा है कि जो अनेक गुणों से सम्पन्न होता है तथा गुणी पुरूष जिसकी सेवा करते हैं, उसे आर्य कहते हैं। तत्वार्थ सूत्र में अनार्य शब्द के स्थान पर मलेच्छ शब्द व्यवहार में आया है। जो आचार-विचार से भ्रष्ट होता है तथा जिसे धर्म-कर्म का कुछ विवेक नहीं होता है, उसे मलेच्छ कहते हैं। वेदों के अनुसार आर्य सदाचरण और सद्वृत्तियों का अनुसरण करने वाले थे और दास (अनाय) दुवृत्तियों, अनियमितताओं और अव्यवस्थाओं को उत्पन्न करने वाले। वैदिक एवं जैन साहित्य यह स्पष्ट है कि आचार सम्मत सद्वृत्ति युक्त व सुसंस्कृत जन या जनसमूह आर्य के सूचक थे। इसके विपरीत वृत्तियों से युक्त मनुष्य अनार्य थे जिनकी प्रथक संस्कृति थी। आर्य व अनार्य भेद सांस्कृतिक दृष्टि से था जबकि चर्तुवर्ण विशुद्ध सामाजिक व्यवस्था थी। दिगम्बर जैन साहित्य से यह भी स्पष्ट होता है कि यह भेद लोक मान्यता पर आधारित था। जैन धर्म अपनाने के लिए निम्न वर्ग पर कोई प्रतिबंध नहीं था। वह व्यक्तिगत साधना से मोक्ष भी प्राप्त कर सकते थे। समन्तभद्राचार्य ने लिखा है कि जो मनुष्य सम्यक दर्शन से सम्पन्न हैं वह चाण्डाल के कुल में उत्पन्न होकर भी देव हैं, राख के भीतर ढके अंगार के भीतरी प्रकाश के समान पूज्य हैं। धर्म के लिए जैन धर्म में भेदभाव को कोई स्थान प्राप्त नहीं था। इस संदर्भ में फूलचन्द्र शास्त्री ने लिखा है कि मनुष्य के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये भेद आगम साहित्य और प्राचीन साहित्य में उपलब्ध नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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