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________________ 308 Sumati-Jnāna संसी जदो तेनेदे अस्तीति भणति जिणवश जम्हा काया इष बहुदेसा तम्हा कायाथ अस्ति काया थ। (द्रव्य संग्रह गाथा) इस प्रकार के पांच द्रव्यों की सत्ता जैन दर्शन में स्वीकार की गयी है। मोक्ष के साधन के रूप में जैन दर्शन सम्यक् चरित्र, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन को स्वीकार करता है। इन तीनों को जैन दर्शन में रत्नत्रय की संज्ञा दी गयी है। जैन दर्शन में स्याद्वाद, नयवाद और सप्तमंगी नय अपना विशिष्ट महत्व रखते हैं। जैन दर्शनानुसार सत्ता के सापेक्ष रूप को स्वीकार करने के कारण परामर्श का रूप सात प्रकार का माना जाता है जिसे सप्तभंगी नय के रूप में जाना जाता है। सप्तभंगी नय इस प्रकार है१. स्याद् अस्ति २. स्याद नास्ति ३. स्याद अस्ति च नास्ति च ४. स्याद् अवक्तव्यम् ५. स्याद् अस्ति च अवक्तव्यम् च ६. स्याद् नास्ति च अवक्तव्यम् च ७. स्याद् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम् च इस प्रकार परामर्श का रूप सात प्रकार का जैन दर्शन में स्वीकार किया गया है। नय सिद्धांत जैन दर्शन का मुख्य विषय माना जाता है। किसी विषय का सापेक्ष निरूपण नयवाद कहलाता है। इस नयवाद का निरूपण जैन ग्रन्थों में अत्यन्त विस्तार के साथ बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि से किया गया है। नय के दो रूप स्थूल रूप में माने जाते हैं१. द्रव्यार्थिक नय २. पर्यायर्थिक नय ___ नय शब्द की निरूक्ति जैन दर्शन मे 'नीयते परिच्छिद्यते एकदेश विशिष्टोऽर्थः अनेनितिनयं इस प्रकार की गयी है। जैन दर्शन इस जगत के मूल में अनेक तत्वों की सत्ता स्वीकार करता है। अतः दार्शनिक दृष्टि से यह दर्शन वहुत्ववादी प्रतीत होता है। साथ ही यह वास्तववाद की अनुयायी भी है। यह दर्शन हमारी वाह्येन्द्रिय तथा अन्तरीन्द्रिय के द्वारा अनुभूत जगत की सत्ता को वास्तविक मानता है। यह दोनों में समन्वय का पक्षधर है। इस दर्शन के अनुसार वाह्य जगत की सत्यता प्रमाणित करने के लिये मन के साथ साथ वाह्य इन्द्रियों की उपयोगिता किसी भी प्रकार से न्यून नहीं है। इस प्रकार जैन दर्शन का दृष्टि बिन्दु निःसंदेह बहुत्व संवलित वास्तववाद है। अनेकान्तवाद जैन दर्शन की बहुमूल्य देन मानी जाती है। समस्त पदार्थों के पारस्परिक संबंधों पर ध्यान दिये बिना सत्यज्ञान का उदय नहीं हो सकता है। गुणरत्न ने एक प्राचीन श्लोक का उद्वरण देकर इस सिद्धांत की पर्याप्त पुष्टि की है। एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वेभावाः सर्वथा तेन दृष्टाः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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